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________________ "उदयाणुयोगद्दारे पदेसोदयपरूवणा ( ३०१ उवघाद-परघाद-पसत्यापसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-थिराथिर - सुहासुह--1 ह-- णिमिणणामामुक्कस्सओ पदेस उदओ कस्स ? चरिमसमयसजोगिस्स । पंचण्णं संघडणाणं उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? संजमासंजम - संजम - अणंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेडीओ तिण्णि वि एगट्ठे काढूण ट्ठियसंजदस्स जाधे गुणसेडिसीसयाणि तिष्णि वि उदयमागदाणि ताधे पंचणं संघडणाणं उक्कस्सओ पदेसउदओ । णिरयाणुपुब्वीए णिरयभंगो । तिरिक्खापुव्वीए तिरिक्खगइभंगो । देवाणुपुव्वीए देवगइभंगो । मणुसाणुपुव्वीए उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? संजमासंजम संजम दंसणमोहणीयक्खवणगुणसेडीओ तिणि वि एगट्ठे काढूण मणुस्सेसु विग्गहं कादृणुववण्णस्स । उज्जोवणामा उक्कस्सओ पदेसउदओ कस्स ? जो संजदो उत्तरसरीरं विउव्विदो अप्पमत्तभावं गदो तस्स उक्कस्सओ पदेसउदओ आदावणामाए उक्कस्सओ पदेसउदओ • कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ मदो बीइंदिएसु बीइंदियसमगं ठिदिसंतकम्मं कादूण इंदितं गदो, तत्थ वि सव्वलहुअं एइंदियसमगं ठिदिसंतकम्मं काढूण बादरपुढवीजीवेसु उववण्णो तस्स पढमसमयपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ पदेसउदओ । उस्सासस्स प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण; इन नामकर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? वह चरम समयवर्ती सयोगीके होता है । शेष पांच संहननोंका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? संयमासंयम, संयम और अनन्तानुबंन्धविसंयोजन रूप तीनों ही गुणश्रेणियोंको एकत्र करके स्थित संयतके जब तीनों ही गुणश्रेणिशीर्षक उदयको प्राप्त होते हैं तब उन पांच संहननोंका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । नारकानुपूर्वीकी प्ररूपणा नरकगति के समान है । तिर्यगानुपूर्वीकी प्ररूपणा तिर्यग्गति के समान है । देवानुपूर्वीकी प्ररूपणा देवगतिके समान है । मनुष्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहनीयक्षपण स्वरूप तीनों ही गुणश्रेणियोंको एकत्र करके मनुष्यों में विग्रह करके उत्पन्न हुए जीवके उसका उत्कृष्ट प्रदेशउदय होता है । उद्योत नामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेश उदय किसके होता है ? जो संयत जीव उत्तर उरीरकी विक्रिया करके अप्रमत्त अवस्थाको प्राप्त हुआ है उसके उसका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । आतप नामकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशउदय किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक मरणको प्राप्त होकर द्वीन्द्रियों में द्वीन्द्रियके समान स्थितिसत्त्वको करके बादर पृथिवीकायिक जीवों में उत्पन्न हुआ है, उस प्रथम समयवर्ती पर्याप्तकके उसका उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है । उच्छ्वासका बेइंदिय थावरगो कम्मं काऊग तस्समं खिष्पं । आयावस्स उ तब्वेइ पढमसमयम्मि वट्टतो ॥ क. प्र ५, १९. गुणितकर्माशः पंचेन्द्रियः सम्प्रदृष्टिर्जातः, ततः सम्यक्त्वनिमित्तां गुणश्रेणि कृतवान् । ततस्तस्या गुणश्रेणीतः प्रतिपतितो मिथ्यात्वं गतः । गत्वा च द्वीन्द्रियमध्ये समुत्पन्नः । तत्र च द्वीन्द्रियप्रायोग्यां स्थिति मुक्त्वा शेषां सर्वामध्यवर्तयति । ततस्ततोऽपि मृत्वा एकेन्द्रियो जातः । तत्रैकेन्द्रियसमां स्थिति करोति । शीघ्रमेव च शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तः, तस्य तद्वेदिन आतपवेदिन खरबादरपृथ्वीकाधिकस्य शरीरपर्याप्त्यनन्तरं प्रथम समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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