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________________ १३२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । अरदि- सोग - भय - दुगुंछ - - - णवंसयवेदाण मुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरतरं जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा अंतोमुहुत्तं, णवुंसयवेदस्स सागरोवमसदपुधत्तं । इत्थवेद - पुरिसवेद - हस्स - रढीणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहणण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा वरि हस्त- रदीर्ण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । मणुस - तिरिक्खाउआणं उक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण तिष्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि, उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्टि दिउदीरणंतरं जहणेण गावलिया । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं मणुस्साउअस्स असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । णिरयाउअस्स उक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण तेत्तीसं सागरोवमाणि मासyधत्तेण भहियाणि, मासपुधत्तादो हेट्ठा उक्कस्सणिरयाउअस्स * बंधाभावादो; उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सट्ठिदिउदीरणंतरं जहणेण जघन्यते अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण होता है । उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम एक पूर्वकोटि मात्र होता है । अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अंतर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल प्रमाण होता है । उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अंतर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अरति व शोकका छह मास तथा भय और जुगुप्साका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका यह अंतर उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण होता है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य व रतिकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है । उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति - उदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता हैं । विशेष इतना है कि उक्त अन्तर हास्य और रतिका उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होता है । मनुष्य व तिर्यंच आयुकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अंतर जघन्यसे साधिक तीन पल्योपम और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है। उनकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका अंतर जघन्यसे एक आवली मात्र होता है । उत्कर्षते वह तिर्यंच आयुका सागरोपमशतपृथक्त्व और मनुष्यायुका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है। नारकायुकी उत्कृष्ट स्थिति - उदीरणाका अन्तर जघन्यसे मासपृथक्त्वसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होता है, क्योंकि, ( ऐसे जीवके तिर्यंच होनेपर ) मासपृथक्त्व से नीचे उत्कृष्ट नारकायुका बन्ध सम्भव नहीं है । उक्त अन्तर उसका उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन नात्र अनन्तकाल प्रमाण होता है । उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अंतर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे वह एकेन्द्रियकी स्थिति के * काप्रतौ ' णिरयाउअजीवस्स', तातो 'णिरयाउअ (जीव ) स्स ' इति पाठ: । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org.
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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