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उक्कमाणुयोगद्दारे द्विदिउदीरणा
( १३७ थिर-सुहपंचयाणं । णवरि उच्चागोदउक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमुत्तं । थिर-सुह-अणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं उक्कस्सेण एगावलिगा, जसगित्ति अणुक्कस्सद्विदिउदीरणंतरं असंखेज्जा लोगा। तित्थयरस्स उक्कस्साणुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं पत्थि । एवमुक्कस्सटिदिउदीरणंतरं समत्तं ।।
जहण्णए पयदं- पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-आहारसरीर-तित्थयरुच्चागोद-पंचंतराइयाणं जहण्णदिदिउदीरणंतरं णत्थि । णिद्दा-पयलाणं पि जहण्णदिदिउदीरणंतरं णत्थि ति एत्थ ण परूविदं । कुदो? एदस्साइरियस्स उवदेसेण खीणकसायम्हि जहण्णदिदिउदीरणाभावादो। एसि * णामपयडीणं सजोगिचरिमसमए जहण्णट्ठिदिउदीरणा तासि पि अंतरं पत्थि । पंचण्णं दंसणावरणीयाणं जहण्णद्विदिउदीरणंतरं जहण्णेण अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा।
मिच्छत्तस्स जहण्णढिदिउदीरणंतरं जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। सम्मत्तस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणंतरं णत्थि । उवसामगं पडुच्च जहण्णण अंतोमुत्तं । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णट्ठिदिउदीरणंतरं जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। असंख्यातवें भाग, तथा अपर्याप्त नामकर्मका साधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण होता है । स्थावर नामकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा एकेन्द्रियजाति नामकर्मके समान है। जैसे पांच संस्थानोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके अन्तरकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही प्रशस्त विहायोगति, उच्चगोत्र तथा स्थिर आदि पांच प्रकृतियोंके भी उक्त अन्तरकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका वह अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त मात्र होता है। स्थिर और शुभ नामकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका उत्कर्षसे अन्तर एक आवली प्रमाण है तथा यशकीर्तिका अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाओंका अन्तर नहीं होता। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका अन्तर समाप्त हुआ।
जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर अधिकारप्राप्त है--पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, आहारशरीर, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय; इनकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तर नहीं होता। निद्रा और प्रचलाकी भी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर नही होता, यह यहां नहीं कहा गया है; क्योंकि, इन आचार्यके उपदेशसे क्षीणकषाय गुणस्थानमें इन दोनोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणा नहीं होती। जिन नाम प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा सयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें होती है उनकी भी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर नहीं होता । निद्रा आदि पांच दर्शनावरणीय प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण होता है।
मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर जघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य स्थिति-उदीरणाका अन्तर नहीं होता। परन्तु उपशामककी अपेक्षा उसका उक्त अन्तर जघन्यसे अंतर्मुहूर्त प्रमाण होता है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तर जघन्यसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। इन तीनों ही प्रकृतियों* ताप्रती ‘सुह-पंचतराइयाणं ' इति पाठः। * काप्रती ‘एदासिं ' इति पाठः ।
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