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________________ पकमाणुयोगद्दारे मूलपयडिपक्कमो ( ३५ भावेण कम्मइयवग्गणपज्जाएण परिणदाओ चेव कम्मसरूवेण परिणमंति, ण नेसाओ । वुत्तं च-- एयवेत्तोगाढं सव्वपदेसेहि कम्मणो जोगं । बंध इ जहुत्तहेऊ* सादियमहणादियं वा वि ॥ १९ ।। सो च एवंविहलक्खणो पक्कमो पयडिपक्कमो ठिदिपक्कमो अणुभागपक्कमो चेदि तिविहो । तत्थ पयडिपक्कमो दुविहो-- मूलपयडिपक्कमो उत्तरपयडिपक्कमो चेदि । तत्थ मूलपयडिपक्कम वत्तइस्सामो। तं जहा- सव्वत्थोवं एगसमयपबद्धम्हि आउअदव्वं, णामा-गोददव्वं अण्णोण्णं सरिसं होदूण विसेसाहियं, णाण-दंसणावरणअंतराइयाणं दव्वमण्णोण्णण सरिसं होदूण विसेसाहियं । मोहणीयदव्वं विसेसाहियं । वेयणीयदव्वं विसेसाहियं । सव्वत्थ विसेसपमाणमणंतरहेट्ठिमदव्वमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडेदूण तत्थ एगखंडमेत्तं होदि । वुत्तं च-- आउअभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहिओ। आवरण-अंतराए तुल्लो अहिओ दु मोहे वि ।। २० ।। ही वे कर्मस्वरूपसे परिणत होती हैं, शेष नहीं। कहा भी है-- जीव एकक्षेत्रमें अवगाहको प्राप्त हुए तथा कर्मके योग्य सादि, अनादि अथवा उभय स्वरूप पुद्गलप्रदेशसमहको यथोक्त हेतुओं ( मिथ्यात्व आदि) द्वारा अपने सब प्रदेशोंसे बांधता है ।। १९ ।। इस प्रकारके लक्षणसे संयुक्त वह प्रक्रम प्रकृतिप्रक्रम, स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रमके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमें प्रकृतिप्रक्रम मूलप्रकृतिप्रक्रम और उत्तरप्रकृतिप्रक्रमके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें मूलप्रकृतिप्रक्रमका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है- एक समयप्रबद्धमें आयुका द्रव्य सबसे स्तोक है । नाम व गोत्र कर्मोका द्रव्य परस्परमें समान होकर उससे विशेष अधिक है। ज्ञानावरण. दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मोका द्रव्य परस्परमें सम मान होकर नाम व गोत्रकी अपेक्षा विशेष अधिक है । मोहनीयका द्रव्य उससे विशेष अधिक है । वेदनीयका द्रव्य उससे विशेष अधिक है। सब जगह विशेषका प्रमाण अनन्तर अधस्तन द्रव्यको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करके जो एक खण्ड प्राप्त होता है उतने मात्र है। कहा भी है-- ___ आयु कर्मका भाग सबसे स्तोक है। नाम व गोत्र कर्ममें वह समान हो करके उससे अधिक है। आवरण अर्थात् ज्ञानावरण व दर्शनावरण तथा अन्तरायमें वह समान होकर उक्त दोनों कर्मोकी अपेक्षा विशेष अधिक है। मोहनीयमें उनसे विशेष अधिक है। किन्तु वेदनीय ते खल पुदगलस्कन्धा अभव्यानन्तगुणा सिद्धानन्तभागप्रमितप्रदेशा घनांगलस्यासंख्येयभागक्षेत्रावगाहिन एक-द्वि-त्रि-चतुः-संख्येयासंख्येयसमयस्थितिकाः पचवण-पंचरस-द्विगन्ध-चतुःस्पर्शस्वभावा अष्टविधकर्मप्रकृतियोग्याः योगवशादात्मनात्मसात् क्रियन्त इति प्रदेशबन्धः समासतो वेदितव्यः । स. सि. ८-२४. ताप्रती 'जहत्त हेयो सादियमणादियं ' इति पाठः। एयक्खेत्तोगाढं सवपदेसेहि कम्मणो जोग्गं । बंधदि सगहेर्हि य अणादियं सादियं उभयं । गो. क. १८५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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