SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छक्खंडागमे संतकम्म सत्रुवरि वेदणीए भागो अहिओ दु कारणं किंतु । सुह-दुक्खकारणत्ता ठिदियविसेसेण सेसाणं* ।। २ ।। एवं सत्तविह-छविहबंधगेसु वि पदेसपक्कमो परूवेयत्वो, विसेसाभावादो । एवं मूलपयडिपक्कमो समत्तो। उत्तरपयडिपक्कमो दुविहो- उक्कस्सउत्तरपयडिपक्कमो जहागउत्तरपडिपक्कमो चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं- सव्वथोवं अपच्चक्खाणकसायमाणपदेसग्गं । अपच्चक्खाणकोधे विसेसाहियं । अपच्चक्खाणमायाए विसेसाहियं । अपच्चक्खाणलोहपदेसग्गं विसेसाहियं । पच्चक्खाणमाणपदेसग्गं विसेसाहियं । कोहे विसेसाहियं । मायाए विसेसाहियं । लोभे विसेसाहियं । अणंताणुबंधिमाणपदेसग्गं विसेसाहियं । कोधे विसेसाहियं । मायाए विसेसाहियं । लोभे विसेसाहियं । मिच्छत्ते विसेसाहियं । केवलदसणावरणे विसेसाहियं । पयलाए विसेसाहियं । णिहाए विसेसाहियं । पयलापयलाए पक्कमदव्वं विसेसाहियं । णिद्दाणिहाए विसेसाहियं। थोणगिद्धीए विसेसाहियं । केवलणाणावरणे विसेसाहियं । आहारसरीरणामाए पक्कमदव्वं अणंतगुणं । वेउव्वियसरीरणामाए पक्कमदव्वं विसेसाहियं । कर्मका द्रव्य सर्वोत्कृष्ट हो करके मोहनीयकी अपेक्षा विशेष अधिक है। इसका कारण वेदनीयका सुख व दुखमें निमित्त होना है। शेष कर्मोंका हीनाधिक भाग उनकी स्थितिविशेषसे है।।२०-२१।। इसी प्रकारसे सात सात प्रकारके व छह प्रकारके कर्मोंको बांधनेवाले जीवोंमें भी प्रदेशप्रक्रमका कथन करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार मूलप्रकृतिप्रक्रम समाप्त हुआ। उत्तरप्रकृतिप्रक्रम दो प्रकारका है- उत्कृष्ट उत्तरप्रकृतिप्रक्रम और जघन्य उत्तरप्रकृतिप्रक्रम । उनमें उत्कृष्ट उत्तरप्रकृतिप्रक्रम प्रकृत है- अप्रत्याख्यान कषायोंमें मानका प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। अप्रत्याख्यान क्रोधमें उससे अधिक प्रदेशाग्र है। अप्रत्याख्यान मायामें उससे अधिक प्रदेशाग्र है । अप्रत्याख्यान लोभमें उससे अधिक प्रदेशाग्र है। उससे प्रत्याख्यान मानका प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक प्रदेशाग्र है। मायामें विशेष अधिक प्रदेशाग्र है। लोभमें विशेष अधिक प्रदेशाग्र है। अनन्तानुबन्धी मानका प्रदेशाग्र उससे विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेध अधिक है। मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें विशेष अधिक है। केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है । वह प्रक्रमद्रव्य प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगद्धिमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रक्रमद्रव्य आहारशरीर नामकर्ममें अनन्तगुणा है। प्रक्रमद्रव्व वैक्रियिकशरीर नामकर्म में विशेष अधिक है। प्रक्रमद्रव्य औदारिकशरीर नामकर्ममें विशेष अधिक है। प्रक्रमद्रव्य तेजसशरीर नामकर्ममें * आउग भागो थोवो णामा-गो देसम तदो अहियो धादितिये वि य तत्तो मोहे तत्ती तदो तदिये ।। सुह दुक्खणिमित्तादो बहुणिज्नरगो ति वेदणीयस्स सहिंतो बहुगं दव्व होदि ति णि इंट।। सेसाग पयindian डीणं ठिदिपडि मागेण होदि दव्वं तु । आवलि असख भागो पविभागो होदि णियमेण ।। गो. क. १९२-१९४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy