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________________ णिबंधणाणुयोगहारे दंगणावरणणिबंधणं दंसणावरणीयं णाम अप्पाणम्मि चेव णिबद्धं, अण्णहा णाण-दसणाणमेयत्तप्पसंगादो। ण च विसय-विसयिसण्णिवादाणंतरसमए सामण्णग्गहणं दंसणं, विषय-विषयिसन्निपातानन्तरमाद्यग्रहणमवग्रह इति लक्षणात् ज्ञानत्वं प्राप्तस्यावग्रहस्य दर्शनत्वविरोधात्। कि च-ण विसेसेण विणा सामण्णं चेव घेप्पदि, दव्व-खेत्त-काल-भावेहि अविसे सिदस्स गहणत्ताणुववत्तीदो। किं च-णाणेण किमवत्युपरिच्छेदो आहो वत्थुपरिच्छेदो कीरदि? ण पढमपक्खो, घड-पडादिवत्थूणं परिच्छेदयाभावेण सयललोगसंववहाराभावप्पसंगादो। ण बिदियपक्खो वि, सणस्स णिव्विसयत्तप्पसंगादो। एवं दसणं पि ण वत्तदोसे अइक्कमइ । ण च णाण-दसणेहि अक्कमेण वत्थुपरिच्छेदो कीरदि, दोण्णमक्कमेण पवुत्तिविरोहादो। एदं कुदो णव्वदे ? " हंदि दुवे णत्थि उवजोगा"* इदि वयणादो। ण च कमेण वत्थुपरिच्छित्ति कुणंति, केवलणाण-दंसणाणं पि कमपत्तिप्पसंगादो। दोण्णमेकदरस्स अभावो वि होज्ज, अगहिदगहणाभावादो। तम्हा एवं सणावरणस्से ति वयणं शंका-- दर्शनावरणीय कर्म आत्मामें ही निबद्ध है, क्योंकि, ऐसा नहीं माननेपर ज्ञान और दर्शनके एक होने का प्रसंग आता है । यदि कहा जाय कि विषय और विषयीके संनिपातके अनन्तर समयमें जो सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शन है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, विषय और विषयीके संनिपातके अनन्तर जो आद्य ग्रहण होता है वह अवग्रह कहा जाता है। इस प्रकारके लक्षणसे ज्ञानस्वरूपको प्राप्त हुए अवग्रहके दर्शन होने का विरोध आता है। दूसरे। विशेषके विना केवल सामान्यका ग्रहण करना शक्य भी नहीं है, क्योंकि, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी विशेषतासे रहित केवल सामान्यका ग्रहण बन नहीं सकता। तीसरे, ज्ञान क्या अवस्तुको ग्रहण करता है अथवा वस्तुको? प्रथम पक्ष तो सम्भव नहीं है, क्योंकि, ज्ञानके घट पट आदि वस्तुओंका परिच्छेदक न रहनेसे समस्त लोकव्यवहारके अभाव हो जानेका प्रसंग आता है। द्वितीय पक्ष भी नहीं बनता है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर दर्शनके निविषय हो जाने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार दर्शन में भी उक्त दोनों दोषोंका प्रसंग आता है । ज्ञान व दर्शन युयुगपत् वस्तुका परिच्छेदन करते हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, दोनोंकी यगपत प्रवत्ति होने में विरोध आता है। प्रतिशंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? प्रतिशंका समाधान-- यह “ खेद है कि दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं" इस आगमवचनसे जाना जाता है। यदि कहा जाय कि वे क्रमसे वस्तुका परिच्छेदन करते हैं तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, एसा माननेपर केवलज्ञान और केवलदर्शनके भी क्रमप्रवृत्तिका प्रसंग आता है । तथा दोनोंमेंसे किसी एकका अभाव भी हो जाना चाहिये, क्योंकि, वैसा होनेपर दूसरेके अगृहीतग्रहण सम्भव नहीं है। इस कारण “ ज्ञानावरणके समान दर्शनावरण भी है " ऐसा जो वचन कहा गया है वह घटित नहीं होता है ? ४ काप्रती परिच्छदि ' इति पाठः । * सण-णाणावरणक्खए समाणमि कस्स पुव्वअरं । होज्ज ___ समं उप्पाओ हंदि दुए णत्थि उवओगा ।। सम्मइ० २-९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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