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________________ ६ ) ण घडदे । ण, एस दोसो, सरुवस्स बज्झत्यपडिबद्धस्स संवेयणं * दंसणं णाम । ण च बज्झत्थेण असंबद्धं सरूवमत्थि, णाण- सुह- दुक्खाणं सव्वेसि पि बज्झत्थावट्ठेभबलेणेव तेसि पवृत्तिदंसणादो । तदो एवं दंसणावरणीयस्से त्ति वयणं घडदिति सिद्धं । सेसं जाणिऊण वत्तव्वं । छक्खंडागमे संतकम्मं वेयणीयं सुह- बुक्खम्हि निबद्धं ॥ ३ ॥ सिरोवेयणादी दुक्खं णाम । तस्स उवसमो तदगुप्पत्ती वा दुवखुवसम हे उदव्यादिसंपत्ती वा सुहं णाम । तत्थ वेयणीयं णिबद्धं, तदुप्पत्तिकारणत्तादो । मोहणीयमप्पाणम्मि निबद्धं ॥ ४ ॥ कुदो ? सम्मत्त चरित्ताणं जीवगुणाणं घायणसहावादो । सम्मत चारिताणि जाणदंसणाणीव बज्झत्थसंबद्धाणि चेव, तदो मोहणीयं सव्वदव्वेसु जिबद्धमिदि किण्ण वुच्चदे ? ग एस दोसो, चत्तारि वि घाइकम्माणि जीवम्हि चेव निबद्धाणित्ति जाणावणट्ठ बज्झत्थाणवलंबणादो . । आउअं भवम्मि निबद्धं ॥ ५ ॥ कुदो ? भवधारणलक्खणत्तादो । को भवो णाम ? उप्पण्णपढमसमयप्पहूडि जाव समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, बाह्य अर्थसे सम्बद्ध आत्मस्वरूप के जाननेका नाम दर्शन है । यदि कहा जाय कि आत्मस्वरूप बाह्य अर्थ से सम्बन्ध नहीं रखता सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ज्ञान, सुख व दुःखरूप उन सभी की प्रवृत्ति बाह्य अर्थके आलम्बलनसे ही देखी जाती है । अत एव ज्ञानावरण के समान दर्शनावरण भी है " यह वचन संगत ही है, यह सिद्ध है । शेष कथन जानकर करना चाहिये । वेदनीय सुख दुःखमें निबद्ध है ॥ ३ ॥ 66 सिरकी वेदना आदिका नाम दुःख है । उक्त वेदनाका उपशान्त हो जाना, अथवा उसका उत्पन्न ही न होना, अथवा दुःखोपशान्ति के कारणभूत द्रव्यादिककी प्राप्ति होना; इसे सुख कहा जाता है । उनमें वेदनीय कर्म निबद्ध है, क्योंकि, वह उनकी उत्पत्तिका कारण है मोहनीय कर्म आत्मामें निबद्ध है ॥ ४ ॥ 1 कारण कि उसका स्वभाव सम्यक्त्व व चारित्र रूप जीवगुणोंके घातनेका है । शंका -- ज्ञान व दर्शन के समान सम्यक्त्व एवं चारित्र भी चूंकि बाह्य अर्थसे ही सम्बन्ध रखते हैं, अत एव ' मोहनीय कर्म सब द्रव्यों में निबद्ध है; ऐसा क्यों नहीं कहते ? समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, चारों ही घातिया कर्म जीव द्रव्यमें ही निबद्ध हैं, यह जतलानेके लिये यहां बाह्य अर्थका अवलम्बन नहीं लिया है । आयु कर्म भवके विषय में निबद्ध है ॥ ५ ॥ कारण कि भव धारण करना यह उसका लक्षण है । शंका-- भव किसे कहते हैं ? काप्रती पडिबद्धस्स तंवेयणं इति पाठ: । Jain Education International कारतो बज्झत्थाणावलंवणादो' इति पाठ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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