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ण घडदे । ण, एस दोसो, सरुवस्स बज्झत्यपडिबद्धस्स संवेयणं * दंसणं णाम । ण च बज्झत्थेण असंबद्धं सरूवमत्थि, णाण- सुह- दुक्खाणं सव्वेसि पि बज्झत्थावट्ठेभबलेणेव तेसि पवृत्तिदंसणादो । तदो एवं दंसणावरणीयस्से त्ति वयणं घडदिति सिद्धं । सेसं जाणिऊण वत्तव्वं ।
छक्खंडागमे संतकम्मं
वेयणीयं सुह- बुक्खम्हि निबद्धं ॥ ३ ॥
सिरोवेयणादी दुक्खं णाम । तस्स उवसमो तदगुप्पत्ती वा दुवखुवसम हे उदव्यादिसंपत्ती वा सुहं णाम । तत्थ वेयणीयं णिबद्धं, तदुप्पत्तिकारणत्तादो ।
मोहणीयमप्पाणम्मि निबद्धं ॥ ४ ॥
कुदो ? सम्मत्त चरित्ताणं जीवगुणाणं घायणसहावादो । सम्मत चारिताणि जाणदंसणाणीव बज्झत्थसंबद्धाणि चेव, तदो मोहणीयं सव्वदव्वेसु जिबद्धमिदि किण्ण वुच्चदे ? ग एस दोसो, चत्तारि वि घाइकम्माणि जीवम्हि चेव निबद्धाणित्ति जाणावणट्ठ बज्झत्थाणवलंबणादो . ।
आउअं भवम्मि निबद्धं ॥ ५ ॥
कुदो ? भवधारणलक्खणत्तादो । को भवो णाम ? उप्पण्णपढमसमयप्पहूडि जाव समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, बाह्य अर्थसे सम्बद्ध आत्मस्वरूप के जाननेका नाम दर्शन है । यदि कहा जाय कि आत्मस्वरूप बाह्य अर्थ से सम्बन्ध नहीं रखता सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ज्ञान, सुख व दुःखरूप उन सभी की प्रवृत्ति बाह्य अर्थके आलम्बलनसे ही देखी जाती है । अत एव ज्ञानावरण के समान दर्शनावरण भी है " यह वचन संगत ही है, यह सिद्ध है । शेष कथन जानकर करना चाहिये । वेदनीय सुख दुःखमें निबद्ध है ॥ ३ ॥
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सिरकी वेदना आदिका नाम दुःख है । उक्त वेदनाका उपशान्त हो जाना, अथवा उसका उत्पन्न ही न होना, अथवा दुःखोपशान्ति के कारणभूत द्रव्यादिककी प्राप्ति होना; इसे सुख कहा जाता है । उनमें वेदनीय कर्म निबद्ध है, क्योंकि, वह उनकी उत्पत्तिका कारण है मोहनीय कर्म आत्मामें निबद्ध है ॥ ४ ॥
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कारण कि उसका स्वभाव सम्यक्त्व व चारित्र रूप जीवगुणोंके घातनेका है । शंका -- ज्ञान व दर्शन के समान सम्यक्त्व एवं चारित्र भी चूंकि बाह्य अर्थसे ही सम्बन्ध रखते हैं, अत एव ' मोहनीय कर्म सब द्रव्यों में निबद्ध है; ऐसा क्यों नहीं कहते ? समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, चारों ही घातिया कर्म जीव द्रव्यमें ही निबद्ध हैं, यह जतलानेके लिये यहां बाह्य अर्थका अवलम्बन नहीं लिया है ।
आयु कर्म भवके विषय में निबद्ध है ॥ ५ ॥ कारण कि भव धारण करना यह उसका लक्षण है । शंका-- भव किसे कहते हैं ?
काप्रती पडिबद्धस्स तंवेयणं इति पाठ: ।
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कारतो बज्झत्थाणावलंवणादो' इति पाठ ।
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