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________________ णिबंधणाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिणिबंधणं चरिमसमओ त्ति जो अवत्थाविसेसो सो भवो णाम । णामं तिधा निबद्धं, पोग्गलविवागणिबद्धं जीवविवागणिबद्ध खेत्तविवागणिबद्धं ॥ ६ ॥ वण्ण-गंध-रस- फास-संघादणादीणं विवागो पोग्गलणिबद्धो, तेसिमुदएण वण्णादीणमुपपत्तिदंसणादो । तित्थयरादीणि कम्माणि जीवणिबद्धाणि, तेसि विवागस्स जीवे चेवुवलंभादो | आणुपुत्री खेत्तणिबद्धा, पडिणियदखेत्ते चेव तिस्से विवागुवलंभादो । तेण णामं तिधा णिबद्धं ति सिद्धं । गोवमप्पाणम्हि णिबद्धं ॥ ७ ॥ कुदो ? उच्च - णीचगोदाणं जीवपच्जायत्तणेण दंसणादो । अंतराइयं दाणादिणिबद्धं ॥ ८ ॥ ૭ कुदो ? दाणादीणं विग्धकरणे तव्वावास्वभादो | एवं मूलपयडिणिबंधणपरूवणं समत्तं । संपहि उत्तरपयडिणिबंधणं वुच्चदे । तं जहा -- चत्तारि णाणावरणीयाणि दव्वपज्जायाणं देसनिबद्धाणि ॥ ९ ॥ ओहिणाणं दव्वदो मुत्तिदव्वाणि चेव जाणदि णामुत्तधम्माधम्म - कालागास- सिद्ध ममाधान -- उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक जो विशेष अवस्था रहती है उसे भव कहते हैं । नामकर्म तीन प्रकारसे निबद्ध है- पुद्गलविपाकनिबद्ध, जीवविपाकनिबद्ध और क्षेत्रविपाकनिबद्ध ॥ ६ ॥ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श शौर संघात आदि नामप्रकृतियोंका विपाक पुद्गलमें निबद्ध है, क्योंकि, उनके उदयसे वर्णादिककी उत्पत्ति देखी आती है । तीर्थंकर आदिक कर्म जीवमें निबद्ध हैं, क्योंकि, उनका विपाक जीवमें ही पाया जाता है । आनुपूर्वी कर्म क्षेत्रमें निबद्ध है, क्योंकि, उसका विपाक प्रतिनियत क्षेत्र में ही पाया जाता है । इस कारण नामकर्म तीन प्रकारसे निबद्ध है, यह सिद्ध होता है । गोत्र कर्म आत्मामें निबद्ध है ॥ ७ ॥ कारण कि उच्च व नीच गोत्र जीवकी पर्यायस्वरूपसे देखे जाते हैं । अन्तराय कर्म दानादिकमें निबद्ध है ॥ ८ ॥ कारण कि दानादिकोंके विषय में विघ्न करनेमें उसका व्यापार पाया जाता है । इस प्रकार मूलप्रकृतिनिबन्धनप्ररूपणा समाप्त हुई । अब उत्तर प्रकृतियोंके निबन्धनकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- चार ज्ञानावरणीय प्रकृतियां द्रव्योंकी पर्यायोंके एकदेशमें निबद्ध है ॥ ९ ॥ अवधिज्ञान द्रव्यकी अपेक्षा मूर्त द्रव्योंकों ही जानता है; धर्म, अधर्म, काल, आकाश और For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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