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________________ ८) छक्खंडागमे संतकम्म जीवदवाणि, “ रूपिष्ववधेः" इति वचनात् । खेत्तदो घणलोगभंतरदिदाणि. चेव जाणदि, णो बहित्थाणि । कालदो असंखेज्जेसु वासेसु जमदीदमणागयं तं चेव जाणदि, णो बहित्थं। भावदो असंखेज्जलोगमेत्तदव्वपज्जाए तीदाणागद-वट्टमाणकालविसए जाणदि । तेणोहिणाणं सव्वदव्वपज्जयविसयं ण होदि । तदो ओहिणाणावरणं सव्वदव्वाणं देसणिबद्धं ति भणिदं । मणपज्जवणाणं पि जेण दव्व-खेत्त-कालभावाणं विसईकदेगदेसं तेण मणपज्जवणाणावरणीयं पि देसणिबद्धं । एवं मदि-सुदणाणावरणीयं पि* देसणिबद्धत्तं परूवेयव्वं । केवलणाणावरणीयं सववव्वेसु णिबद्धं ॥ १० ॥ कुदो? विसईकदासेसदव्व केवलणाणपडिबंधयत्तादो। खेत्त-काल-भावग्गहणं. सुत्ते ण कदं, तेण तमेत्थ वत्तव्वं? ण, दवेहितो पुधभूदक्खेत्त-काल-भावाणमभावादो। श्रीणगिद्धितिय णिद्धा पयला य अचक्खुदंसणावरणीयं अप्पाणम्मि णिबद्धं ॥ ११ ॥ सिद्ध जीव इन अमूर्त द्रव्योंको वह नहीं जानता; क्योंकि, 'अवधिज्ञानका निबन्धरूपी द्रव्योंमें है, ' ऐसा सूत्रवचन है। क्षेत्रकी अपेक्षा वह घनलोकके भीतर स्थित द्रव्योंको ही जानता है। उसके बाहर स्थित द्रव्योंको नहीं जानता। कालकी अपेक्षा वह असंख्यात वष के भीतर जो अतीत व अनागत वस्तु है उसे ही जानता है, उनके बाहर स्थित वस्तुको नहीं जानता । भावकी अपेक्षा वह अतीत, अनागत एवं वर्तमान कालको विषय करनेवाली असंख्यात लोक मात्र द्रव्यपर्यायोंको जानता है। इसलिये अवधिज्ञान द्रव्योंकी समस्त पर्यायोंको विषय करनेवाला नहीं है । इसी कारण अवधिज्ञानावरण सब द्रव्योंके एकदेशमें निबद्ध है, ऐसा कहा है । मन पर्ययज्ञान भी चूंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा एक देशको ही विषय करनेवाला है; अत एव मनःपर्ययज्ञानावरणीय भी देशनिबद्ध है। इसी प्रकार मतिज्ञानावरणीय और श्रुतज्ञानावरणीयकी भी देशनिबद्धताका कथन करना चाहिये ।। केवलज्ञानावरणीय सब द्रव्योंमें निबद्ध है ॥ १० ॥ कारण कि वह समस्त द्रव्योंको विषय करनेवाले केवलज्ञानका प्रतिबन्धक है। शंका-- यहां सूत्र में क्षेत्र, काल और भावका ग्रहण नहीं किया गया है, इसलिये उनका यहां कथन करना समाधान-- नहीं, क्योंकि, द्रव्योंसे पृथग्भूत क्षेत्र, काल और भावका अभाव है । स्त्यानगृद्धित्रय, निद्रा, प्रचला और अचक्षुदर्शनावरणीय आत्मामें निबद्ध है ।११॥ ४ त. सू. १-२७.२ काप्रती 'वरणीयं पदेसाणिबद्धं ' इति पाउ:। प्रत्योरुभयोरेव 'दिदाणं' इति पाठा प्रत्योरुभयोरेव बहिद्धाणि ' इति पाठ। प्रत्योरुभयोरेव 'बहिद्ध इति पाठः। काप्रती 'प देसणिवद्ध' ताप्रती ' पि देसणिबद्धं' इति पाठः। प्रत्योहमयोरेव विसमईकदासेसदव्वं इति पाठः। *कापतो 'कालभवग्गहणं', तापतो'कालणिबद्धग्गहणं' इति पाठ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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