SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विंणाणुयोगद्दारे उत्तरपयडिणिबंधणं जीवस्स सगसंवेयणघाइत्तादो । रस- फास-गंध-सद्द - दिट्ठ- सुवाणुभूदत्थविसयसगसत्तिवियजीवोवजोगो अचक्खुदंसणं णाम । तम्हा अचक्खुदंसणेण बज्झत्थणिबंधणे * होदव्वमिदि ? सच्चमेदं, किंतु तमेत्थ बज्झत्यणिबंध णत्तं ण विवक्खिदं । किमट्ठे विवक्खा ण कीरदे ? सव्वं पि दंसणं णाणं व बज्झत्थविसयं ण होदिति जागावणट्ठ ण कीरदे । चक्खुदंसणावरणीयं * गरुअलहुअणंतपदेसिएस बब्वेसु निबद्धं । १२ । संखेज्जासंखेज्जपदेसियपोग्गलदव्वं चक्खुदंसणस्स विसओ ण होदि, किंतु अणंतपदेसियपोग्गलदव्वं चेव विसओ होदित्ति जाणावणटुमणंतपदेसिएस दव्वेि भणिदं । एदं वयणं सामासियं, तेण सव्वेसि दंसणाणमचक्खुसण्णिदाणमेसा परूवणा कायव्वा । गरुअलहुअ विसेसणं अणतपदेसियक्खंधस्स होदि, गरुआणं लोहदंडादीणं हलुआण मक्कतूलादीणं च चक्खि दिएण गहणुवलंभादो । अगुरुअलअविसेसणं णि कीरदे ? ण चक्खिदियविसए परमाणुआदीणमसंभवादो । पुव्वं सव्वं पि दंसणमज्झत्थविसयमिदि परूविदं संपहि चक्खुदंसणस्स बज्झत्थविसयत्तं कारण कि उक्त प्रकृतियां जीवके स्वसंवेदनको घातनेवाली हैं । शंका -- रस, स्पर्श, गन्ध, शब्द, दृष्ट, श्रुत व अनुभूत अर्थको विषय करनेवाली अपनी शक्तिविषयक जीवके उपयोगको अचक्षुदर्शन कहा जाता है । इसीलिये अचक्षुदर्शनका निबन्धन बाह्य अर्थ होना चाहिये ? समाधान- यह कहना सत्य है, किन्तु उक्त बाह्यार्थ निबन्धनताकी यहां विवक्षा नहीं की गई है । शंका- उसकी विवक्षा क्यों नहीं की गई है ? समाधान - सभी दर्शन ज्ञानके समान बाह्य अर्थको विषय करनेवाला नहीं है, इस बात के ज्ञापनार्थ यहां उसकी विवक्षा नहीं की गई है । चक्षुदर्शनावरणीय कर्म गुरु व लघु ऐसे अनन्त प्रदेशवाले द्रव्यों में निबद्ध है । १२ । संख्यात व असंख्यात प्रदेशवाला पुद्गल द्रव्य चक्षुदर्शनका विषय नहीं होता, किन्तु अनन्त प्रदेशवाला पुद्गल द्रव्य ही उसका विषय होता है; इस बातको जतलानेके लिये 'अनन्त प्रदेशवाले द्रव्योंमें' यह कहा है। यह वचन देशामर्शक है, इसलिये उससे अचक्षु संज्ञावाले सब. दर्शनोंकी यह प्ररूपणा करनी चाहिये । 'गुरु व लघु' यह अनन्त प्रदेशवाले स्कन्धका विशेषण है, क्योंकि, चक्षु इन्द्रियके द्वारा लोहदण्डादिरूप गुरु और अर्कतूल ( आक के पेडका रुंआ ) आदिरूप लघु पदार्थों का ग्रहण पाया जाता है । शंका -- ' अगुरुअलघु' यह विशेषण क्यों नहीं करते ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, परमाणु आदि चक्षु इन्द्रियके विषय नहीं होते । शंका -- सभी दर्शन अध्यात्म अर्थको विषय करनेवाला है, ऐसी प्ररूपणा पहले की जा चुकी है । किन्तु इस समय बाह्यार्थको चक्षुदर्शनका विषय कहा है, इस प्रकार यह कथन संगत काप्रती 'विवंधणेण' इति पाठ: ] ताप्रती 'चक्खुदंसणीयं इति पाठः । + काप्रतो/ हलुहाण, ताप्रती 'हलुहाण ( लहुआण)' इति पाठ 1 मप्रतिपाठोऽयम् काप्रती - 'मक्कचुलादीर्ण, तातो- 'मक्कतुलादीण इति पाठः । ताम्रतौ चक्खिदिएय (ण) ' इति पाठः । काप्रती 'तं' जहा इति पाठ: काप्रती 'चक्खिदिएया Jain Education International , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy