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________________ छवखंडागमे संतकम्म परूविदं ति णेदं घडदे, पुवावरविरोहादो ? ण एस दोसो, एवंविहेसु बज्झत्थेसु पडिबद्धत्तसगसत्तिसंवेयणं चक्खुदंसणं ति जाणावणह्र बज्झत्थविसयपरूवणाकरणादो। पंचण्णं दंसणाणमचक्खुदंसणमिदि एगणिद्देसो किमळं कदो ? तेसि पच्चासत्ती अस्थि त्ति जाणावणळं कदो। कधं तेसि पच्चासत्ती ? विसईदो पुधभूदस्स अक्कमेण सग-परपच्चक्खस्स चक्खुदंसण विसथस्सेव तेसि विसयस्स परेसि जाणावणोवायाभावं पडि समाणत्तादो। ओहिवंसणावरणीयं रूविवव्वेसु णिबद्धं ॥ १३ ॥ रूविदव्वविसयसगसत्तिसंवेयणविघादकरणादो एत्थ वि पुत्वं व बज्झत्थविसय परूवणाए कारणं वत्तव्वं । नहीं है ; क्योंकि,, इसमें पूर्वापरविरोध है ? __समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारके बाह्य पदार्थों में प्रतिबद्ध शक्तिका संवेदन करने को चक्षुदर्शन कहा जाता है; यह बतलानेके लिये उपर्युक्त बाह्यार्थविषयताकी प्ररूपणा की गई है। शंका-- पांच दर्शनों के लिये 'अचक्षुदर्शन' ऐसा एक निर्देश किसलिये किया है ? समाधान- उनकी परस्परमें प्रत्यासत्ति है, इस बातके जतलानेके लिए वैसा निर्देश किया गया है। शंका-- उनकी परस्परमें प्रत्यासत्ति कैसे है ? समाधान--विषयीसे पृथग्भूत अतएव युगपत् स्व और परको प्रत्यक्ष होनेवाले ऐसे चक्षुदर्शनके विषयके समान उन पांचों दर्शनों के विषयका दूसरोंके लिये ज्ञान कराने का कोई उपाय नहीं है। इसकी समानता पांचों ही दर्शनों में हैं, यही उनमें प्रत्यासत्ति है । विशेषार्थ-- यहां शंकाकारका कहना है कि जिस प्रकार चादर्शनको स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी है इसी प्रकारसे त्वगिन्द्रियादिसे उत्पन्न होनेवाले शेष पांच दर्शनोंकी स्वतंत्र सत्ता स्वीकार न कर उन्हें एक अचक्षुदर्शनके ही अन्तर्गत क्यों कहा गया है। इसके उत्तरम यहां यह कहा गया है कि जिस प्रकार चक्षुदर्शनकी विषयभूत वस्तु विषयी (अप्राप्यकारी चक्षु) से पृथक् होनेके कारण एक साथ स्व और पर दोनों के लिये प्रत्यक्ष होती है और इसीलिए दूसरोंको उसका ज्ञान भी कराया जा सकता है, इस प्रकार उक्त पांचों दर्शनोंकी विषयभूत वस्तु विषयी ( प्राप्यकारी त्वगिन्द्रियादि ) से पृथक् न रहनेके कारण एक साथ स्त्र और पर दोनोंके लिये प्रत्यक्ष नहीं हो सकती, और इसीलिये उसका दूसरोंको एक साथ ज्ञान भी नहीं कराया जा सकता है । यही इन पांचों दर्शनोंमें प्रत्यासत्ति है जो सबमें समान है । अवधिदर्शनावरणीय रूपी द्रव्योंमें निबद्ध है ॥ १३ ॥ रूपी द्रव्यविषयक आत्मशक्तिके संवेदनका विघात करनेके कारण पहिलेके ही समान इसकी भी बाह्यार्थविषयक प्ररूपणाका कारण कहना चाहिये। ४कापतो 'सत्तित्तवेयणं ' इति पाठः।* कापतो 'कुदो' इति पाठ । काप्रती 'पच्चासत्तिविसइदो इति पाठः। मप्रतिपाठोऽयम् 1 का-ताप्रत्यो: 'अचक्ख दंसण इति पाठ।। ॐ काप्रती 'वायाभावा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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