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________________ विंधणाणुयोगद्वारे उत्तरपयडिणिबंधणं केवलदंसणावरणीयं सव्वदव्वे णिबद्धं ॥ १४ ॥ अनंतसम्मत्त - णाण-चरण- सुहादिसत्तीणं केवलदंसणविसयाणं बज्झत्थं चेव अणि अट्ठावलंभादो । केवलदंसणादीणं बज्झत्थणिबंधोQ किमठ्ठे वुच्चदे ? दंसणविसयजाणावणट्ठे, अण्णहा दंसणविसयस्स अज्झत्थस्स परेसिमपच्चक्खस्स जागवणोवायाभावादो । सादासादाणमप्पाणम्हि णिबंधो ।। १५ ।। कुदो? सादासादविवागफलाणं सुह- दुक्खाणं जीवे समुवलंभादो । मोहणीयं बुविहं- दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेदि । तस्थ दंसणमोहणीयं सव्वदव्वेसु निबद्धं, णोसव्वपज्जासु ॥ १६ ॥ मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं च सव्वदव्वेसु णिबद्धं, सव्वदव्व सद्दहणगुणविघादकरणादो । सम्मत्तं णोसव्वपज्जा एसु णिबद्धं । कुदो ? तत्तो सम्मत्तस्स एगदेसधादुवलंभादो | दंसणमोहणीयं जेण घादिकम्मं तेण अप्पाणम्मि णिबद्धमिदि किष्ण परूविदं ? ण. एस ( ११ केवलदर्शनावरणीय सब द्रव्योंमें निबद्ध है ॥ १४ ॥ कारण कि केवलदर्शनकी विषयभूत अनन्त सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र एवं सुख आदि रूप शक्तियों का अवस्थात बाह्य अर्थका ही आश्रय करके पाया जाता है । शंका -- केवलदर्शनादिकोकी बाह्यार्थनिबद्धताका कथन किसलिये किया जाता है ? समाधान -- दर्शनका विषय बतलाने के लिये उसका कथन किया गया है। कारण कि दर्शनका विषयभूत अर्थ अध्यात्मरूप होनेसे दूसरोंको प्रत्यक्ष नहीं है, अतएव इसके विना उसका ज्ञान करानेके लिये और कोई दूसरा उपाय ही नहीं था । सातावेदनीय और असातावेदनीय आत्मामें निबद्ध हैं ॥ १५ ॥ कारण कि साता व असाता सम्बन्धी विपाकके फलरूप सुख व दुःख जीव में ही पाये जाते है । मोहनीय कर्म दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीयके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें दर्शनमोहनीय सब द्रव्योंमें निबद्ध है, सब पर्यायोंमें नहीं ॥ १६ ॥ मिथ्यात्व व सम्माग्मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय सब द्रव्योंमें निबद्ध हैं, क्योंकि, वे समस्त द्रव्यों सम्बन्धी श्रद्वान गुणका विघात करनेवाली प्रकृतियां हैं । सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय प्रकृति कुछ पर्यायोंमें निबद्ध है, क्योंकि, उसके द्वारा सम्यक्त्वके एकदेशका घात पाया जाता है । शंका-- दर्शन मोहनीय चूंकि घातिया कर्म है, अत एव ' वह आत्मामें निबद्ध है'; ऐसी प्ररूपणा यहां क्यों नहीं की गई है ? समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, छह द्रव्य और नौ पदार्थ विषयक श्रद्धानका तातो' णाणावरणसुहादि ' इति पाठः । उभयोरेव प्रत्यो णिबद्धो ' इति पाठ । काप्रती 'विवाकगलाणं', तारतः 'विवाकगलाणं (सादासादविवागाणं), मप्रतो 'विवाकफलाणं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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