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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( १७५ चक्खु-अचक्खुदंसणावरण-सम्मत्त-इत्थि-पुरिसवेदाणं पंचंतराइयाणं च उक्कस्सिया उदीरणा दुढाणिया, अणुक्कस्सिया दुढाणिया एयवाणिया वा । चक्खु-अचक्खुदंसणाणमुदओ जस्स वि एगमक्खरमस्थि तस्स णियमा एगट्ठाणिया उदीरणा। सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया अणुक्कस्सिया वा णियमा दुट्ठाणिया एक्कम्मिट्ठाणे। तिरिक्खमणुस्साउ-तिरिक्ख-मणुसगइ-चउजादि--ओरालियसरीरतदंगोवंग-ओरालियसरीरबंधण-संघाद-चउसंठाण-छसंघडण-कक्खड-गरु-आणुपुव्वीचउक्कआदाव-थावर-सुहुमअपज्जत्त-साहारणाणमुक्कस्सा अणुक्कस्सा वा उदीरणा दुट्ठाणिया। तित्थयरस्स उक्कस्सा अणुक्कस्सा चदुट्ठाणिया। एवमुक्कस्सिया ह्राणपरूवणा समत्ता । जहणट्ठाणसमुक्कित्तणं वत्तइस्सामो। तं जहा- सव्वकम्माणं पि अणुक्कस्सियाए उदीरणाए जं जस्स जहण्णियट्ठाणं अभिवाहरिदं तं चेव जहण्णट्ठाणं उदीरणाए ट्ठाणमभिवाहरियव्वं अजहण्णाए अणुक्कस्सभंगो। भवोवग्गहियाणं दुढाणियपडिभागियं तिढाणपडिभागियं चउढाणपडिभागियं चेदि अभिवाहिरियव्वं । दुढाणिय-तिढाणियचउट्ठाणियं ति च ण भाणियव्वं । एवं ठाणपरूवणा समत्ता। एत्तो सुहासुहपरूवणं वत्तइस्सामो। तं जहा- पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीयअसादावेदणीय-अट्ठावीसमोहणीय-णिरयाउ-णिरयगइ-तिरिक्खगइ--एइंदिय-बेइंदियतेइंदिय-चरिदियजादि-पंचसंठाण-पंचसंघडण-अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फास-णिरयगइहोती है। चक्षु व अचक्षु दर्शनावरण, सम्यक्त्व, स्त्री व पुरुष वेद तथा पांच अन्तराय; इनकी उत्कृष्ट उदीरणा द्विस्थानिक तथा अनुत्कृष्ट उदीरणा द्विस्थानिक और एकस्थानिक होती है। चक्षु व अचक्षु दर्शनावरणका उदय जिसके भी एक अक्षर है उसके नियमसे उनकी एकस्थानिक उदीरणा होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट उदीरणा एक स्थानमें नियमसे द्विस्थानिक होती है। तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, चार जातिनामकर्म, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकशरीरबन्धन, औदारिकशरीरसंघात, चार संस्थान, छह संहनन, कर्कश, गुरु, चार आनुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर; इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट उदीरणा द्विस्थानिक होती है। तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट उदीरणा चतुःस्थानिक होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। जघन्य स्थानसमुत्कीर्तनका कथन करते है। वह इस प्रकार है-- सभी कर्मोंकी अनुत्कृष्ट उदीरणामें जिसका जो जघन्य स्थान कहा गया है वही जघन्य स्थान उदीरणाका स्थान कहना चाहिये। अजघन्य उदीरणाकी प्ररूपणा अनुत्कृष्ट उदीरणाके समान है। भवोपगृहीत प्रकृतियोंके द्विसनप्रतिभागिक, त्रिस्थानप्रतिभागिक और चतु:स्थानप्रतिभागिक कहना चाहिये ; उनके द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक नहीं कहना चाहिये । इस प्रकार स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। यहां शुभाशुभप्ररूपणा कहते हैं। वह इस प्रकार है पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, अट्ठाईस मोहनीय, नारकायु, नरकगति, तिथंचगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पांच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरक For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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