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________________ १७४ ) छवखंडागमे संतकम्मं गुणपडवणे परिणामपच्चइया, अगुणपडिवण्णेसु भवपच्चइया । को पुण गुणो ? संजमो संजमासंजमो वा । एवं पच्चयपरूवणा गदा । विवागपरूवणागदाए जहा णिबंधो पुव्वं परूविदो तहा एत्थ विवागो वि परूवेयव्वो, भेदाभावादो । ठाणपरूवणदाए आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स उक्कस्सिया उदीरणा नियमा चउट्ठाणिया । अणुक्कस्सा चउट्ठाणिया तिट्ठाणिया बिट्ठानिया एयट्ठाणिया वा । सुदणाणावरण - ओहिणाणावरण ओहिदंसणावरण-चदुसंजलण - णवुंसयवेदाणमाभिणिवोहियणाणावरणभंगो । मणपज्जवणाणावरण- केवलदंसणावरण- णिद्दाणिद्दा- पयलापयलाथी गिद्ध - णिद्दा - पयला-सादासादवेदणीय-मिच्छत्त- बारसकसाय छष्णोकसाय- णिरय-देवाउ- णिरय-- देवगइ - पंचिदियजादि-चदुसरीर - वे उब्विय - आहार अंगोवंग - वेड व्वियआहार - तेजा - कम्मइयपाओग्गबंधण-संघाद - समचउरस- हुंडठाण - वण्ण-गंध-रस-सीदुसुण- गिद्ध - ल्हुक्ख-मअ-लहुअ - अगुरुअलहुअ - उवघाद - परघाद -- उज्जोवुस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-तस - बादर - पज्जत्त - पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-- सुस्सरआदेज्ज - जसकित्ति दुभग- दुस्सर - अणादेज्ज- अजसकित्ति - णिमिणणीचुच्चागोदाणमुक्कस्सिया उदीरणा चउट्ठाणिया । अणुक्कस्सा चउट्ठाणिया तिट्ठाणिया दुट्टाणिया वा । प्रत्ययिक और अगुणप्रतिपन्न जीवोंमें भवप्रत्ययिक होती है । शंका- गुणसे क्या अभिप्राय है ? समाधान - गुणसे अभिप्राय संयम और संयमासंयमका है । इस प्रकार प्रत्ययप्ररूपणा समाप्त हुई । विपाकप्ररूपणाकी विवक्षा होनेपर जैसे पहिले निबन्धकी प्ररूपणा की गई है वैसे यहां विपाककी भी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि, उनमें कोई विशेषता नहीं है । स्थानप्ररूपणामें आभिनिबोधिकज्ञानावरणकी उत्कृष्ट उदीरणा नियमसे चतुः स्थानिक तथा अनुत्कृष्ट उदीरणा चतु:स्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक होती है । श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण, चार संज्वलन और नपुसंक वेदकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान है । मन:पर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, बारह कषाय, छह नोकषाय, नारकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, पंचेंद्रियजाति, चार शरीर, वैयिक व आहारक अंगोपांग, वैक्रियिक, आहारक, तेजस व कार्मण शरीरोंके योग्य बंधन व संघात; समचतुरस्रसंस्थान, हुण्डकसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, लघु, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति, निर्माण तथा नीच व ऊच गोत्र, इनकी उत्कृष्ट उदीरणा चतु. स्थानिक तथा अनुत्कृष्ट उदीरणा चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक Jain Education International तानी ' गुणगारो' इति पाठ । 'For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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