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________________ उदयाणुयोगद्दारं १० पणमिय संतिजिणिदं घाइयणिस्सेसदोससंघायं । उदयाणुयोगदारं किंचि समासेण वण्णेहं ॥१॥ एत्तो उदओ कायन्वो- णामादिउदएसु एत्थ केण उदएण पयदं ? णोआगमो कम्मदव्वउदएण पयदं । सो कम्मदव्वुदओ चउवि हो। तं जहा- पयडिउदओ दिदिउदओ अणुभागउदओ पदेसउदओ चेदि । तत्थ पयडिउदओ दुविहो मलपयडिउदओ उत्तरपयडिउदओ चेदि । मूलपयडिउदओ चितिय वत्तव्यो। उत्तरपयडिउदए पयदं । तत्थ सामित्तं । तं जहा- पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं को वेदओ? सव्वो छदुमत्थो । पंचण्णं दसणावरणीयाणं को वेदओ? सरीरपज्जत्तीए दुसमयपज्जत्तमादि कादूण उवरिमो अण्णदरो तप्पाओग्गो वेदओ। णवरि थीणगिद्धितियस्स देव-णेरइय-अप्पमत्तसंजदा आहारसरीरमुट्ठावियपमत्तसंजदा च अवेदया। अण्णेसिमुवदेसेण एदे पुव्वुत्ता अवेदया होदण असंखेज्जवस्साउआ च उत्तरविउव्विदतिरिक्ख-मणुस्सा च अवेदया। सादासादाणमण्णदरो संसारत्थो तप्पाओग्गो वेदओ। मिच्छत्तं सव्वो मिच्छाइट्ठी वेदयदि, सम्मामिच्छत्तं सव्वसम्मामिच्छाइट्ठी सम्मत्तं समस्त दोषसंघातको नष्ट कर देनेवाले शांति जिनेन्द्रको नमस्कार करके मैं कुछ संक्षेपसे उदयानुयोगद्वारका वर्णन करता हूं ।। १ ।। यहां उदयकी प्ररूपणा की जाती है-- नाम उदयादिकोंमें यहां कौनसा उदय प्रकृत है ? यहां नोआगमकर्मद्रव्य उदय प्रकृत है । वह कर्मद्रव्य उदय चार प्रकारका है । यथा--प्रकृतिउदय, स्थिति उदय, अनुभागउदय और प्रदेश उदय । उनमें प्रकृतिउदय दो प्रकार है--मूलप्रकृतिउदय और उत्तरप्रकृतिउदय । मूलप्रकृतिउदयका कथन विचार कर करना चाहिये । उत्तरप्रकृतिउदय प्रकृत है । उसमें स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है । यथा--पांच ज्ञानावरण, चक्षु आदि चार दर्शनावरण, और पांच अन्तरायका वेदक कौन होता है ? इनके वेदक सभी छद्मस्थ जीव होते हैं। निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंका वेदक कौन होता है ? शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेके द्वितीय समयवर्तीको आदि करके आगेका कोई भी तत्प्रायोग्य जीव उनका वेदक होता है। विशेष इतना है कि देव, नारकी, अप्रमत्तसंयत तथा आहारकशरीरको उत्पन्न करनेवाले प्रमत्तसंयत भी स्त्यानगद्धित्रिकके अवेदक होते हैं। अन्य आचार्योंके उपदेशके अनुसार ये पूर्वोक्त जीव स्त्यानगृद्धित्रिकके अवेदक होते हैं, इनके अतिरिक्त असंख्यातवर्षायुष्क तथा उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेवाले तिर्यंच व मनुष्य भी उसके अवदक होते हैं । साता व असाता वेदनीयका वेदक तत्प्रायोग्य अन्यतर संसारी जीव होता है। मिथ्यात्वका वेदन सब ही मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका वेदन सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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