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________________ उनकमाणुयोगद्दारे उतीरणाभेदरूपणा (४३ उक्कस्साणुक्कस्सपदेसपरूवणा पदेसबंधणउवक्कमो णाम। एत्थ एदेसि चदुण्णमुवक्कमाणं जहा संतकम्मपयडिपाहुडे परूविदं तहा परूवेयव्वं । जहा महाबंधे परूविदं तहा परूवणा एत्थ किण्ण कीरदे ? ण, तस्स पढमसमयबंधम्मि चेव वावारादो। ण च तमेत्थ वोत्तुं जुत्तं, पुणरुत्तदोसप्पसंगादो। एवं बंधणउवक्कमो समत्तो। उदीरणा चउन्विहा- पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसउदीरणा चेदि । तत्थ पयडिउदीरणा दुविहा- मूलपयडिउदीरणा उत्तरपयडिउदीरणा चेदि। तत्थ मूलपयडिउदीरणं वत्तइस्सामो। तं जहा- का उदीरणा णाम? अपक्कपाचणमुदीरणा। आवलियाए बाहिरटिदिमादि कादूण उवरिमाणं ठिदीणं बंधावलियवदिक्कंतपदेसग्गमसंखेज्जलोगपडिभागेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण वा ओकट्टिदूण उदयावलियाए देदिसा उदीरणा ।मूलपयडि उदीरणा दुविहा- एगेगपयडिउदीरणा पयडिट्ठाण का आश्रय करके संचयको प्राप्त हुए उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशकी प्ररूपणाको प्रदेशबन्धनउपक्रम कहा जाता है। इन चार उपक्रमोंकी प्ररूपणा जैसे सत्कर्मप्रकृतिप्राभृतमें की गई है उसी प्रकार यहां भी करनी चाहिये । शंका--- जैसी महाबन्धमें प्ररूपणा की गई है वैसी प्ररूपणा यहां क्यों नहीं की जाती है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, उसका व्यापार प्रथम समय सम्बन्धी बन्धमें ही है । और उसका यहां कथन करना योग्य नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता है । इस प्रकार बन्धन-उपक्रम समाप्त हुआ। उदीरणा चार प्रकारकी है-- प्रकृति उदीरणा, स्थिति उदीरणा, अनुभागउदीरणा, प्रदेशउदीरणा। उनमें प्रकृतिउदीरणा मूलप्रकृतिउदीरणा और उत्तरप्रकृतिउदीरणाके भेदसे दो प्रकारकी है। उनमें मूलप्रकृति उदीरणाका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-- शंका-- उदीरणा किसे कहते हैं ? समाधान-- नहीं पके हुए कर्मोके पकानेका नाम उदीरणा है। आवलीके बाहिरकी स्थितीको लेकर आगेकी स्थितियोंके बन्धावली अतिक्रान्त प्रदेशाग्रको असंख्यात लोक प्रतिभागसे अथवा पत्योपमके असंख्यातवें भाग रूप प्रतिभागसे अपकर्षण करके उदयावली में देना, यह उदीरणा कहलाती है। मूलप्रकृति उदीरणा दो प्रकारकी है- एक-एकप्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा। ४ कापती उदयावलियारा जादि ' इति पाठः । * तत्थ उदओ णाम कम्माणं जहाकालजणिदो फलविवागो कम्मोदयो उदयो त्ति भणिदं होइ। उदीरणा पुण अपरित्तकालाणं चेव कम्माणमवायविसेसेण परिपाचण, अपक्वपरिपाचनमदीरणेति वचनात् । वृत्तं च- कालेण उवायेण य पच्चति जहा वणप्फइफलाई । तह कालेण तवेण य पच्चंति कयायिं कमा (म्मा) यिं ।। जयध. अ. प. ७४८. ज करणेणोकडिय उदये दिज्जा उदीरणा एसा पगह-ठि इ-अणुभाग-प्पएसमूलत्तरविभागा ।। क.प्र. ४, १. तत्र यत्परमाण्वात्मकं दलिक करणेण योगसंज्ञकेन वीयं विशेषेण कषायसहितेन असहितेन वा उदयावलिकाबहिवेत्तिनीभ्यः स्थितीभ्योऽपकृष्य उदये दीयते उदयावलिकायां प्रक्षिप्यते एषा उदीरणा ( मलय. ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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