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छक्खंडागमे संतकम्म एत्थ ताव एगेगपयडिउदीरणाए सामित्तं भणिस्सामो। णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयाणं मिच्छाइडिमादि कादूण जाव खीणकसाओ त्ति ताव एदे उदीरया। णवरि खीणकसायद्धाए समयाहियावलियसेसाए एदासि तिण्णं पयडीणं उदीरणा वोच्छिण्णा। मोहणीयस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइओ त्ति उदीरया । णवरि चडमाणसुहमसांपराइयद्धाए समयाहियावलियसेसाए उदीरणा वोच्छिण्णा । वेयणीयस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति उदीरया। गवरि पमत्तसंजदस्स अप्पमत्ताहिमुहस्स चरिमसमए उदीरणा वोच्छिण्णा। आउअस्स मिच्छाइट्ठी मरणकाले चरिमावलियं मोत्तूण सेससव्वकाले उदीरओ। गुणं पुण पडिवज्जमाणो जाव चरिमसमयं ताव उदीरओ । एवं वत्तव्वं जाव पमत्तसंजदो त्ति । उवरि उदीरणा आउअस्स पत्थि। कुदो ? साभावियादो। णामा-गोदाणं मिच्छाइटिप्पडि जाव सजोगिकेवलि त्ति उदीरणा* । णवरि सजोगिकेवलिचरिमसमए उदीरणा वोच्छिण्णा । एवं सामित्तं समत्तं ।
एयजीवेण कालो-- वेयणीय-मोहणीयाणमुदीरओ अणादिओ अपज्जवसिदो,
यहां पहले एक-एक-प्रकृति उदीरणाके स्वामित्वका कथन करते हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन कर्मोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकपाय पर्यन्त, ये जीव उदीरक हैं। विशेष इतना है कि क्षीणकषायके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इन तीनों प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है । मोहनीय कर्मके मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्म साम्मरायिक तक उदीरक हैं। विशेष इतना है कि चढते समय सूक्ष्मसाम्मरायिकके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। वेदनीय कर्मके मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक उदीरक हैं। विशेष इतना है कि अप्रमत्त गुणस्थानके अभिमुख हुए प्रमत्तसंयत जीवके अन्तिम समयमें उसकी उदो रणा व्युच्छिन्न हो जाती है। मरणकालमें अन्तिम आवलीको छोडकर शेष सब काल में आयुका उदीरक मिथ्यादृष्टि जीव होता है। परन्तु अन्य गुणस्थानको प्राप्त होनेवाला जीव उस गुणस्थानके अन्तिम समय तक उदीरक होता है। इस प्रकार प्रमत्तसंयत तक कहना चाहिये, क्योंकि, उसके आगे आयुकी उदीरणा नहीं है। इसका कारण स्वभाव है। नाम व गोत्र कर्मकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक है। विशेष इतना है कि सयोगकेवलीके अन्तिम समयमें उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ।
एक जीवकी अपेक्षा काल- वेदनीय और मोहनीयका उदीरक जीव अनादि-अपर्यवसित,
४ घाईण छउमत्था उदीरगा रागिणो य मोहस्स । क. प्र. ४,३. घातिकृतीनां ज्ञानावरण-दर्शनावरणान्तरायरूपाणां सर्वेऽपि छद्मस्थाः क्षीण मोहपर्यवसाना उदीरकाः । मोहनीयस्य तु रागिण: सरगा: सूक्षसाम्परायपर्यवसाना उदीरका: (मलय. टीका)। *तइयाऊण पमत्ता जोगंता उत्ति दोण्ह च ।। क प्र.४,४. तृतीयस्य वेदनीयस्य आयुषश्च प्रमत्ता। प्रमत्तगुणस्थानकपर्यन्ताः सर्वेऽप्युदीरकाः। केवलमायुषः पर्यन्तावलिकायां
नोदीरका भवन्ति तथा द्वयोम-गोत्रयोर्योग्यन्ताः सयोगिकेवलिपर्यवसानाः सर्वेऽप्यदौरका: (मलय.टीका)। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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