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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा ( १०७ मणुसगदिणामाए उक्कस्सट्ठिदिउदीरगो को होदि ? जो मणुस्सो णिरयगइणामाए उक्कस्सियं ट्ठिदि बंधिदूण पडिभग्गो संतो मणुसदि बंधदि तस्स आवलियादिक्कंतस्स पडिच्छिदणिरयगदिउक्कस्सट्ठिदिस्स मणुस गदिणामाए उक्कस्सट्ठिदिउदीरणा । देवदिणामाए उक्कस्सट्ठिदिउदीरगो को होदि ? मणुस्सो वा तिरिक्खो वा णिरयगदिसंजुत्तमुक्कस्सद्विदि बंधिदूण पडिभग्गो संतो ताधे चेव जो देवर्गाद बंधिदूण अंतोमुहुत्तेण देवो जादो तस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स। जहा तिरिक्खगइणामाए तहा ओरालियसरीरणामाए। वेउब्वियसरीरस्स णिरयगइभंगो। आहारसरीरणामाए उक्कस्सट्टिदिउदीरओ को होदि ? आहारसरीरस्सर तप्पाओग्गउक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मिओ पढमसमयआहारसरीरओ* ओरालियसरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो मनुष्य नरकगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर उससे भ्रष्ट होता हुआ मनुष्यगतिको बांधता है उसके नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका मनुष्यगति रूपसे संक्रणम होनेपर एक आवली कालके पश्चात् मनुष्यगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा होती है। देवगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो मनुष्य या तिर्यच होता है, वह नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर भ्रष्ट होता हुआ उसी समयमें देवगतिको बांधकर अन्तर्मुहूर्तमें देव हो जाता है । उसके देव होने के प्रथम समयमें देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा होती है। जिस प्रकार तिर्यग्गति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाके स्वामीकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार औदारिकशरीरकी भी प्ररूपणा करना चाहिये। वैक्रियिकशरीरकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा नरकगतिके समान है। आहारकशरीरनामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? आहारकशरीरका उदीरक तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिके सत्त्ववाला समयवर्ती आहारक * ताप्रती '-उक्कस्सट्रिदिमणुस-' इति गठः। २ मप्रतिणठोऽयम् । उभयोरेव प्रत्योः 'अंतोमुत्तूण देवो' इति पाठः। 6 देवगति-देव-मणयाणपुवी आयाव-विगल-सुहमतिगे। अंतोमहत्तभग्गा तावयगुणं तदुक्कस्सं ॥ क. प्र. ४, ३३. देवगनि त्ति- देवगति-देवानपूर्वी-मनुष्यानपूर्वीणामातपस्य विकलत्रिकस्य द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियजातिरूपस्य सूक्ष्मत्रिकस्य च सूक्ष्म-साधारणापर्याप्तकलक्षणस्य (१०) स्व-स्वोदये वर्तमान अन्तर्मुहर्त भग्ना उत्कृष्टस्थितिबन्धाध्यवसायादनन्तरमन्तमहतं कालं यावत् परिभ्रष्टा: सन्तस्तावदूनामन्तर्मुहतॊनां तदुत्कृष्टां देवगत्यादीनामुत्कृष्टां स्थितिमदीरयन्ति । यमत्र भावना- कश्चित्तथाविधपरिणामविशेषभावतो नरकगतेउत्कृष्टां स्थिति विंशतिसागरोपमक टीकोटीप्रमाणां बध्वा ततः शभपरिणामविशेषभावतो देवगतेरुकष्टां स्थिति दशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां बद्घमारभते । ततस्तस्यां देवगतिस्थिती बध्यमानायामावलिकाया उपरि बन्धावलिकाहीनामावलिकात उपरितनी सर्वामपि नरकगति स्थिति संक्रमयति । ततो देवगतेरपि विंशतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा स्थितिरावलिकामात्रहीना जाता। देवगति च बध्नन् जघन्येनाप्यन्तमहतं कालं यावद् बध्नाति । बन्धानन्तरं च कालं कृत्वाऽनन्तरसमये देवो जातः। ततस्तस्य देवत्वमनुभवतो देवगतेरन्तर्महर्लोना बिंशतिसागरोपमकोटीको टीप्रमाणा उत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या भवति । (मलय. टीका). ४ उभयोरेव प्रत्योः ‘आहारसरीरदुगस्स' इति पाठः । ताप्रती 'आहारसरीर (? ।' इति पाठः। ...तथाहारकसप्तकमप्रमत्तेन सता तद्योग्योत्कृष्टसंक्लेशेनो कष्टस्थितिकं बद्धन्, तत्कालोत्कृष्ट स्थितिक ( स्व ) मूलप्रकृत्यभिन्नप्रकृत्यन्तरदलिकं च तत्र संक्रमितम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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