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________________ १०८ ) छक्खंडागमे संतकम्म अंगोवंगणामाए उक्कस्सट्ठिदिउदीरओ को होदि ? देवो रइओ वा उक्कस्सििद बंधिदूण तिरिक्खजोणिगब्भोवक्कंतियणसए उववण्णो तस्स जाव आवलियतब्भवत्थस्से त्ति ओरालियंगोवंगणामाए उक्कस्सिया ट्ठिदिउदीरणा। जहा वेउव्वियाहारसरीराणं तहा तेसिमंगोवंगणामाणं । जहा पंचण्णं सरीराणं तहा पंचबंधण-संघादाणं पि परूवणा कायव्वा । ___पंचसंठाणेसु जस्स जस्स इच्छिज्जदि तस्स तस्स संठाणस्स वेदगो उक्कस्सियं ठिदि कादूण आवलियादिक्कंतमुदीरेदि। जहा ओरालियसरीरअंगोवंगणामाए तहा असंपत्तसेवट्टसंघडणणामाए वत्तव्वं । सेसाणं पंचणं संघडणाणं जहा पंचण्णं संठाणाणं कदं तहा कायव्वं । जहा णिरयगई तहा णिरयाणुपुवीए। जहा तिरिक्खगई तहा तिरिक्खाणुपुवीए। जहा देवगई तहा देवाणुपुव्वीए मणुसाणुपुवीए च। जहा धुवउदीरयाणं पयडीणं तहा उवघादणामाए परघादणामाए उस्सासणामाए च। उक्कस्सियं द्विदि बंधिदूण अमरंतो चेव आवलियादिक्कंतमुदीरेदि त्ति शरीरी होता है। औदारिकशरीरांगोपांग नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? उसका उदीरक देव अथवा नारक जीव होता है, जो उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर तिर्यंच योनिवाले गर्भापक्रान्तिक नपुंसकमें उत्पन्न हुआ है उसके उक्त भवमें स्थित होनेके आवली मात्र कालके भीतर औदारिकशरीरांगोपांग नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा होती है। जिस प्रकार वैक्रियिक और आहारकशरीर सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे उनके आंगोपांग नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा करना चाहिये। जसे पांच शरीरोंको उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही पांच बन्धन और पांच संघात नामकर्मों के सम्बन्ध में भी प्ररूपणा करना चाहिये। पांच संस्थानोंमेंसे जिस जिसकी विवक्षा हो उस संस्थानका वेदक जीव उत्कृष्ट स्थितिको करके आवली मात्र कालको बिताकर उसका उदीरक होता है। जैसे औदारिकशरीरांगोपांग नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका कयन किया गया है वैसे ही असंप्राप्तासृपाटिकासंहननकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाका कथन करना चाहिये । शेष पांच संहननोंका कथन पांच संस्थानोंके समान करना चाहिये । नरकगत्यानुपूर्वीको प्ररूपणा नरक गतिके समान है। तिर्यग्गत्यानुपूर्वीकी प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान है। देवगत्यानुपूर्वी और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी प्ररूपणा देवगतिके समान है। उपघातनामकर्म, परघात नामकर्म और उच्छ्वास नामकर्मको प्ररूपणा ध्रुवउदीरणावाली प्रकृतियोंके समान है। मात्र उनकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर मरणसे रहित होता हुआ एक आवलीके ततस्तत्सर्वोत्कृष्टान्तःसागरोपमकोटीकोटीस्थि तक जातम्। बन्धानन्तर चान्तमहर्तमतिक्रम्याहारकशरीरमारभते। तच्चारभमाणो लब्ध्यपजीवनेनौत्सुक्यभावतः प्रमादभाग्भवति । ततस्तस्य प्रमत्तस्य सत आहारकशरीरमुत्पादयत आहारकशरीरसप्तकस्यान्तर्मुहूर्तोनोत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या। अत्र प्रमत्तस्य सत आहारकशरीरारम्भकत्वादुत्कृटस्थित्यदीरणास्वामी प्रमत्तसंयत एवं वेदितव्यः । क. प्र. ( मलय. ) ४, ३३. ४ देवगति-देव-मणुयाणुपुब्बी आयाव-विगल-सुहुमतिगे । अंतोमुहुत्तभग्गा तावयगूणं तदुक्कस्सं ॥ क प्र.४,३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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