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________________ १०६ ) छक्खंडागमे संतकम्म चदुण्णमाउआणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरगो को होदि ? जो अप्पप्पणो उक्कस्साउटिटीसु उववण्णो पढमसमयतब्भवत्थो सो उक्कस्सियाए द्विदोए उदीरओ। णिरयगदिणामाए उक्कस्सद्विदीए उदीरओ को होदि ? जो उक्कस्सट्टिदि बंधियण णिरयगदीए उववण्णो जहण्णेण पंचमाए पुढवीए उक्कस्सेण सत्तमाए पुढवीए पढमसमयतब्भवत्थो दुसमयतब्भवत्थो तिसमयतब्भवत्थो चदुसमयतब्भवत्थो वि एवं जाव आवलियतब्भवत्थो त्ति उक्कस्सद्विदीए उदीरओ*। तिरिक्खगइणामाए उक्कस्सियाए टिदीए उदीरओ को होदि? णियमा पज्जतओ देवगइपच्छायदए इंदियो वा देव -णिरयगदिपच्छायदगब्भोववकं तियतिरिक्खजोणिणqसयवेदो वा। एवमेइंदियजादीए। णवरि देवपच्छायदएइंदियस्सेव । पंचिदियजादीए णाणावरणभंगो। णवरि एइंदिओ त्ति ण वत्तव्वं । चार आयु कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है? जो अपनी अपनी उत्कृष्ट आयुस्थितिमें उत्पन्न होकर प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ है वह उस उस आयुकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। नरकगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है? जो उसकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर नरकगतिमें उत्पन्न हुआ है, वह जघन्यसे पांचवीं और उत्कर्षसे सातवीं पृथिवीमें तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें, द्वितीय समयमें, तृतीय समयमें, चतुर्थ समयमें ; इस प्रकार तद्भवस्थ होने के आवली मात्र काल तक नरकगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। तिर्यग्गति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? नियमसे देवगतिसे लौटकर आया हुआ एकेन्द्रिय पर्याप्त, अथवा देवगति व नरकगतिसे लौटकर आया हुआ गर्भोपक्रान्तिक तिर्यंचयोनिवाला नपुंसकवेदी जीव तिर्यग्गतिकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसी प्रकारसे एकेन्द्रिय जाति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाके स्वामीका कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि देव पर्यायसे प.छे आये हुए एकेन्द्रिय जीवके ही उसकी उदीरणा सम्भव है। पंचेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाके स्वामीका कथन ज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि यहां 'एकेन्द्रिय' यह नहीं कहना चाहिये । मनुष्यगति संक्रमावलिकायां चातीतायामुदीरणायोग्या, तत्र सक्रमावलिकातिक्रमेऽपि सान्तर्मुहूर्वोतव । तन: सम्यक्त्वमनुभवतः सम्यक्त्वस्यान्तर्मुहुर्तोना सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणोत्कृष्टा स्थि िरुदीरणायोग्या। ततः कश्चित सम्यक्त्वेऽप्यन्तर्मुहूर्त स्थित्वा सम्पग्मिथ्यान्वं प्रतिपद्यते । ततः सम्यग्मिथ्यात्वमनुभवतः सम्यग्मिथ्यात्वस्यान्तर्मुहर्त द्विकोना सप्ततिसागरोपमक टीकोटीप्रमाणोत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या भवति। क. प्र. (मलय.) ४,३२. X ताप्रतौ ' वि । एवं ' इति पाठः। * अद्धाच्छेओ सामित्तं पि य ठिहसंकमे जहा नवरं रि। तव्वेइसु निरयगईए वा वि तिसु हि (हे) ट्रिम खिईसु ॥ क. प्र. ४, ३२. नरकगतेः, अपिशब्दान्नरकानपूाश्च तिर्यपंचेन्द्रियो मनष्यो वोत्कृष्टां स्थिति बद्ध्वा उत्कृष्टस्थितिबन्धानन्तरं चान्तमहर्ते व्यतिक्रान्ते सति तिमध्वधस्तनपृथिवीषु मध्येऽन्यतरस्यां पृथिव्यां समुन्मन्नः, तस्य प्रथमसमये नरकगतेरन्तमहर्तहीना सर्वापि स्थितिविंशतिमागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा उदीरणायोग्या भवति। ......... अधस्तनपृथिवीत्रयग्रहणे किं प्रयोजनमिति चेदूच्यते- इह नरकगत्यादीनामुत्कृष्टां स्थिति बन्धनवश्यं कृष्णलेश्यापरिणामोपेतो भवति । कृष्णलेश्या गरिणामोपेतश्च कालं कृत्वा नरकेषुत्पद्यमानो जघन्यकृष्णलेश्यापरिणानः पंचमपृथिव्यामुत्पद्यते, मध्यमकृष्ण लेश्यापरिणामः षष्ठपृथिव्याम्, उत्कृष्टकृष्णलेश्यापरिणामः सप्तमपृथिव्यामित्यधस्तनपथिवीत्रय ग्रहणम् । (मलय. टीका ) * काप्रतौ 'देवा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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