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________________ १०२ ) छवखंडागमे संतकम्म ऊणाओ। सादस्स तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ तीहि आवलियाहि ऊणाओ। मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया ठिदिउदीरणा सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ बेहि आवलियाहि ऊणाओ । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणा सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ अंतोमुहुत्तूणाओ। सोलसण्णं कसायाणं उक्कस्सट्ठिदिउदीरणा चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बेहि आवलियाहि ऊणाओ। णवणोकसायाणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओतीहि आवलियाहि ऊणाओ। गिरय-देवाउआणं उक्कस्सिया ट्ठिदिउदीरणा तेत्तीससागरोवमाणि आवलिऊणाणि । तिरिक्ख-मणुस्साउआणं तिणि पलिदोवमाणि आवलियूणाणि । णिरयगइ-तिरिक्खगइ एइंदिय-चिदियजादि-ओरालिय-वेउम्विय-तेजा-कम्मइयसरीरहुंडसंठाण-ओरालिय-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-असंपत्तसेवठ्ठसंघडण-वण्ण-गंधरस-फास-णिरयगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी--अगुरुअलहुअ-उवघाद--परघाद-- उस्सास-उज्जोव--अप्पसत्थविहायगइ-तस-थावर-बादर-पज्जत्त--पत्तेयसरीर-अथिरअसुभ-दूभग-दुस्सर-अणावेज्ज-अजसगित्ति-णिमिण-णीचागोदाणमुक्कस्सिया ट्ठिदिउदीरणा वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बेहि आवलियाहि ऊणाओ । मणुसगइ सागरोपम प्रमाण है। साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा तीन आवलियों ( बन्धावली, संक्रमणावली और उदयावली ) से होन तीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा दो आवलियोंसे हीन सत्तर कोडाकोडि सागरोपमप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा अन्तर्मुहर्त कम सत्तर कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो आवलियोंसे हीन चालीस कोडाकोडि सागरोपमप्रमाण है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा तीन आवलियोंसे हीन चालीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। नारकआयु और देवाउकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा एक आवली कम तेतीस सागरोपमप्रमाण है । तिर्यगायु और मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा एक आवली कम तीन पल्योपमप्रमाण है। नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तेजस व कार्मण शरीर, हण्डकसंस्थान, औदारिक व वैक्रियिक शरीरांगोपांग, असंप्राप्तासपाटिकासंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरकगति व तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघू, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीति, निर्माण और नीचगोत्र; इनकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो आवलियोंसे हीन बीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है। मनुष्यगति, पांच संस्थान, पांच संहनन, प्रशस्त विहायो " येषां त कर्मणां मनजगति-सातावेदनीय... एकोनत्रिंशत्संख्याकानामदए सति संक्रमेणोत्कष्टा स्थिति.. तेषामावलिकात्रिकहीना सर्वा स्थितिरुदीरणाप्रायोग्या, केवलं तानि कर्माणि वेश्यमानानां वेदितव्या। क. प्र (मलय) ४. ३२। ओघेण मिच्छ० उक्कस्सिपा टिदिउदीरणा सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ Jain Educatioदोहि आवलियाहि ऊ गाओ। सम्म० सम्मामि.......जयवअ. प. ७९३ । www.jainelibrary.org.
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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