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________________ पक्कमाणुयोगद्दारे अणेयं तसिद्धी कथंचित्ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥ १६ ॥ हैं' इस प्रकारका भी एकान्त पक्ष सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर ' अवाच्य हैं' इस वाक्यका प्रयोग भी अयुक्त होगा ।। १५ ।। 1 विशेषार्थ -- जो वादी पदार्थको सत् व असत् ( उभय ) स्वरूप मानकर भी उन दोनों धर्मो परस्पर सापेक्षता स्वीकार नहीं करते उनके यहां उभयस्वरूपता भी असम्भव है, क्योंकि, जिस स्वरूपसे वे सत् हैं उसी स्वरूपसे उन्हें असत् माननेमें विरोध आता है । इस प्रकार स्याद्वाद न्यायके विना उक्त प्रकारसे उभय स्वरूपता भी नहीं बनती। किन्तु स्याद्वादका अवलम्बन करनेपर पदार्थको उभय ( सत् असत् ) स्वरूप माननेमें कोई विरोध नहीं रहता कारण कि स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा सत्स्वरूप वस्तुको परकीय द्रव्य ' क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा असत्स्वरूप भी मानना ही पडेगा, क्योंकि, इसके विना सबके सब स्वरूप हो जानेका अनिवार्य प्रसंग आनेसे घटपटादि पदार्थोंमें विभिन्नरूपता सम्भव नहीं है । जो वादी ( बौद्ध ) सत् व असत् पक्षोंमें दिये गये दोषोंके परिहारकी इच्छासे तत्त्वको अवक्तव्य स्वीकार करते हैं वे अपने इस अभिमतका परिज्ञान दूसरोंको किस प्रकारसे करावेंगे ? कारण कि स्वसंवेदनसे तो दूसरोंको समझाया नहीं जा सकता है । यदि कहा जाय कि तत्त्व क्षणक्षयी व कल्पनातीत होनेसे अवाच्य है' इत्यादि वाक्योंके द्वारा दूसरोंको समझाया जा सकता है, सो यह भी उचित नहीं है; क्योंकि, ऐसा होनेपर ' सर्वथा अवक्तव्य है यह सिद्धान्त स्वयमेव खण्डित हो जाता है । यह कथन तो उस व्यक्ति के समान स्ववचनबाधित ह जो कि 'मैं मौनव्रती हूं' इन शब्दोंके द्वारा अपने मौनव्रतकी सूचना देता है । , ( ३१ हे भगवन् ! आपका अभीष्ट तत्त्व कथंचित् सत् स्वरूप ही है, वह कथंचित् असत् स्वरूप ही है, कथंचित् उभय ( सत्-असत् ) स्वरूप भी है, और कथंचित् अवाच्य भी है । वह अभीष्ट तत्त्व नयके सम्बन्धसे ऐसा है, सर्वथा वैसा नहीं है ॥ १६ ॥ विशेषार्थ -- उक्त प्रकारसे सत्, असत्, उभय और अवाच्य स्वरूप एकान्त पक्षोंमें दोषोंको दिखाकर यहां इस कारिकाके द्वारा सप्तभंगीको प्रगट किया गया है । यद्यपि कारिकामें चार ही भंगों का निर्देश है, तथापि उसमें प्रयुक्त 'च' शब्दके द्वारा शेष तीन भंगोंकी भी सूचना कर दी गयी है । प्रश्नके वश एक ही वस्तुमें विधि व निषेधकी कल्पना करनेको सप्तभंगी कहा जाता है । वह नयविवक्षाके अनुसार ही सम्भव है, न कि सर्वथा । वे सात भंग निम्न प्रकार हैं(१) कथंचित् घट सत् स्वरूप है । इसमें द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे विधिकी कल्पना की गई है, क्योंकि, घटादिक सभी पदार्थ अपने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे सत् स्वरूप ही हैं । यदि उन्हें अपने द्रव्यादिककी अपेक्षा सत् न माना जाय तो फिर वे खरविषाणके समान वस्तु ही नहीं रहेंगे । (२) कथंचित् घट असत् स्वरूप है । इसमें पर्यायार्थिक नयकी प्रधानतासे प्रतिषेधकी कल्पना की गई है, क्योंकि, परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे घट असत् ही है । यदि परकीय द्रव्यादिकी अपेक्षा विवक्षित वस्तुको असत् न स्वीकार किया जावे तो जिस प्रकार घट Jain Education International आ मी १४ सिय अस्थि णत्थि उहह्यं अव्वत्तव्वं पुणो यतत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभगं आदेसवसेण संभवदि ।। पंचा. १४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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