SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं ण च एयादो अणेयाणं कम्माणं वुप्पत्ती विरूद्धा, कम्मइयवग्गणाए अनंताणंतसंखाए अटुकम्मपाओग्गभावेण अट्ठविहत्तमावण्णाए एयत्तविरोहादो | णत्थि एत्थ एयंतो, एयादो घडादो अणेयाणं खप्पराणमुप्पत्तिदंसणादो । वृत्तं च-कम्मं ण होदि एयं अणेयविहमेय बंधसमकाले । मूलुत्तरपयडीणं परिणामवसेण जीवाणं ।। १७ ।। जीवपरिणामाणं भेदेण परिणामिज्ज माणकम्मइथवग्गणाणं भेदेण च कम्माणं बंधसमकाले चेव अणेयविहत्तं होदित्ति घेत्तव्वं । कधं मुत्ताणं कम्माणममुत्तेण जीवेण सह संबंधो ? ण, अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्त संसारावत्थाए अमुत्तत्ताभावादो | अणादिबंधो । स्वकीय द्रव्यादिसे सत् है, उसी प्रकार वह परकीय द्रव्यादिककी अपेक्षा भी सत् ही ठहरेगा । और वैसा होनेपर ' यह घट है, पट नहीं है' इस प्रकारका भेद न रह सकनेसे सबके सब स्वरूप हो जानेका प्रसंग अनिवार्य होगा । अतएव अपने द्रव्यादिकी अपेक्षा वस्तु जैसे सत् है वैसे ही वह परकीय द्रव्यादिकी अपेक्षा असत् भी है, यह मानना ही चाहिये । ( ३ ) कथंचित् घट सत् व असत् ( उभय ) स्वरूप है यहां द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा क्रमसे विधि व प्रतिषेधकी कल्पना की गई है । कारण कि यदि ऐसा न माना जाये तो फिर घटादि वस्तुओंमें क्रमशः होनेवाले सत् व असत् रूप विकल्पके व्यवहारका विरोध होगा । ( ४ ) कथंचित् घट अवक्तव्य है । इसमें युगपत् विधि व प्रतिषेधकी कल्पना की गई है। चूंकि सत् व असत् रूप दोनों धर्मो को एक साथ सूचित करनेवाला कोई भी शब्द सम्भव नहीं है, अतएव उस अवस्थामें वस्तुको अवक्तव्य मानना उचित ही है । च' शब्द से सूचित शेष तीन भंग( ५ ) कथंचित् घट सत् व अवक्तव्य है । यहां विधिके साथ ही युगपत् विधि व प्रतिषेध की कल्पना की गई है । ( ६ ) कथंचित् घट असत् व अवक्तव्य है । यहां प्रतिषेधके साथ युगपत् विधि व प्रतिषेधकी कल्पना की गई है । ( ७ ) कथंचित् घट सत्-असत् व अवक्तव्य है । यहां क्रमशः विधि व प्रतिषेधकी कल्पना के साथ युगपत् भी विधि व प्रतिषेधकी कल्पना की गई है । इस प्रकार ये सात वाक्य ही सम्भव है । प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ भंगों में दो अथवा तीन के संयोग से उत्पन्न वाक्य इन्हीं में अन्तर्भूत होंगे, उनसे भिन्न सम्भव नहीं हैं । " इसके अतिरिक्त एकसे अनेक कर्मोंकी उत्पत्ति विरुद्ध है, ऐसा कहना भी अयुक्त है; क्योंकि, आठ कर्मोंकी योग्यतानुसार आठ भेदको प्राप्त हुई अनन्तानन्त संख्यारूप कार्मण वर्गणाको एक माननेका विरोध है । दूसरे, एकसे अनेक कार्योंकी उत्पत्ति नहीं होती; ऐसा एकान्त भी नहीं है, क्योंकि, एक घटसे अनेक खप्परोंकी उत्पत्ति देखी जाती है । कहा भी है-कर्म एक नहीं है, वह जीवों के परिणामानुसार मूल व उत्तर प्रकृतियों के बन्ध समान कालमें ही अनेक प्रकारका है ।। १७ ।। जीवपरिणामोंके भेदसे और परिणमायी जानेवाली कार्मण वर्गणाओंके भेदसे बन्धके समकालमें ही कर्म अनेकप्रकारका होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । शंका-- • मूर्त कर्मोंका अमूर्त जीवके साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, अनादिकालीन बन्धनसे बद्ध रहनेके कारण जीवका संसार ताप्रती Jain Education International " ण इत्येतत्पदं नास्ति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy