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________________ पक्कमाणुयोगद्दारे जीवस्स मुत्तामुत्तत्तविआरो कुदो गव्वदे ? जीव-सरीराणं वट्टमाणबंधण्णहाणुववत्तीदो। ण च वट्टमाणबंधघडावणठें जीवस्स विरूवित्तं वोत्तुं जुत्तं, जीव-देहाणं महापरिमाणत्तादो रूवित्तणेण च उवलद्धिलक्खणपत्ताणं रूव-रस-गंध-पासाणं पुधभूदाणमुवलंभप्पसंगादो। कि चण जीवदव्वमत्थि, रूपिणः पुद्गलाः' इच्चेदेण लक्खणेण जीवाणं पोग्गलेसु अंतभावादो। ण च दव्वं दवंतरस्स असाहारणगुणेण परिणमइ, अच्चंताभावेण णिरुद्धपवुत्तीदो। काणि दवाणमसाहारणलक्खणाणि ? चेयणलक्खणं जीवदव्वं, रूवरस-गंध-पासलक्खणं पोग्गलदव्वं, ओगाहणलक्खणमायासदव्वं, जीव-पोग्गलाणं गमणागमणणिमित्तकारणं धम्मदव्वं, तेसिमवट्ठाणस्स णिमित्तकारणलक्खणमधम्मदव्वं, दव्वाणं परिणमणस्स णिमित्तकारणलक्खणं कालदव्वं । कि दव्वं णाम ? स्वकासाधारणलक्षणापरित्यागेन द्रव्यांतरासाधारणलक्षणपरिहारेण द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रुवत् तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यं । तदो जीवो अमुत्तो चेव, पोग्गलस्स असाहारणगुणेहि तस्स परिणामाभावादो । मिच्छत्तासंजम--कसाय--जोगा अवस्थामें अमूर्त होना सम्भव नहीं है । शंका-- अनादिबन्धका परिज्ञान किस प्रमाणसे होता है ? समाधान-- चूंकि जीव और शरीरका वर्तमान बन्ध अनादिबन्धके विना बन नहीं सकता है, अत एव इस अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुसे उसका ज्ञान हो जाता है। शंका-- वर्तमान बन्धको घटित करानेके लिये पुद्गलके समान जीवको भी रूपी कहना योग्य नहीं है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर जीव और शरीर दोनों चूंकि महान् परिमाणवाले हैं और रूपी भी हैं; अतएव वे इन्द्रियग्राह्य हो जाते हैं । इसलिए उनके रूप, रस, गन्ध और स्पर्शके अलग अलग ग्रहण होनेका प्रसंग आता है । दूसरे, जीव द्रव्यको इस प्रकारसे रूपी स्वीकार करनेपर उसका अस्तित्व ही सम्भव नहीं है, क्योंकि, 'जो रूपी हैं वे पुद्गल हैं। इस सूत्रोक्त लक्षणके अनुसार रूपी माननेसे जीवोंका पुद्गलोंमें अन्तर्भाव हो जाता है। तीसरे, एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके असाधारण गुणरूपसे परिणत भी नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसी प्रवृत्ति अत्यन्ताभावके द्वारा रोकी जाती हैं। द्रव्योंके असाधारण लक्षण कौनसे हैं? जीव द्रव्यका असाधारण लक्षण चेतना; पुद्गल द्रव्यका रूप, रस, गन्ध व स्पर्श ; आकाश द्रव्यका अवगाहन, धर्म द्रव्यका जीवों और पुद्गलोंके गमनागमनमें निमित्तकारणता, अधर्म द्रव्यका उक्त जीवों और पुदगलोंके अवस्थानमें निमित्तकारणता, तथा काल द्रव्यका असाधारण लक्षण द्रव्योंके परिणमनमें निमित्तकारण होता है । द्रव्य किसे कहते हैं ? अपने असाधारण स्वरूपको न छोड. कर दूसरे द्रव्योंके असाधारण स्वरूपका परिहार करते हुए जो उन उन पर्यायोंकों वर्तमानमें प्राप्त होता है, भविष्यमें प्राप्त होगा व भूतकालमें प्राप्त हो चुका है वह द्रव्य कहलाता है । इसलिये जीव अमूर्तिक ही है, क्योंकि, पुद्गल द्रव्यके जो रूप और रसादिक असाधारण गुण हैं उनके स्वरूपसे उसका परिणमन हो नहीं सकता। तथा मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और - कापतो 'वि' इत्येतत् पदं नोपलभ्यते। * तत्त्वा० ५-५. यथास्वं पर्याययन्ते द्रवन्ति व तानि द्रव्याणि । स, सि ५-२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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