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उवक्कमाणुयोग द्दारे पदेसउदीरणा
( २६१ अणुदीरओ होदूण जदि उदीरगो होदि तो एसा अवत्तव्वउदीरणा ।
सामित्तं- मदिआवरणस्स भुजगारउदीरओ अप्पदरउदीरओ अवट्ठिदउदीरओ वा को होदि ? अण्णदरो। एवं सव्वेसि कम्माणं । णवरि अवत्तव्वउदीरओ केसिंचि कम्माणं भाणियन्वो । एवं सामित्तं समत्तं ।
एयजीवेण कालो जहा अणुभागउदीरणाए तहा वत्तव्यो। णवरि भवपच्चइए जहा चेव परिणामपच्चएसु तहा कायन्वो। तं जहा- मणुसगदिणामाए पदेसउदीरणाए अवट्टिदउदीरओ पुवकोडि देसूणं । भवपच्चइयाणमवट्टिदउदीरयकालं मोत्तूण सेसाण कम्माणमेयजीवेण कालो अंतरं गाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं च जहा अणुभागउदीरणाए तहा पदेसउदीरणाए+वि भुजगारो कायव्वो।
अप्पाबहुअं । त जहा- मदिआवरणस्स अवट्टिदउदीरया थोवा । भुजगारउदीरया असंखे० गुणा । अप्पपरउदीरया विसेसाहिया। सेसचदुण्णं णाणावरणीयाणं चदुण्णं दंसणावरणीयाणं च मदिआवरणभंगो। पंचण्णं दसणावरणीयाणं एवं चेव । णवरि अवट्ठिदउदीरया थोवा। अवत्तव्वउदो० असंखे० गुणा । सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा जाती है तो यह अवस्थित उदीरणा होती है । अनुदीरक हो करके यदि उदीरक होता है तो यह अवक्तव्य उदीरणा कहलाती है।
स्वामित्व- मतिज्ञानावरणका भुजाकार उदीरक, अल्पतर उदीरक और अवस्थित उदीरक कौन होता है ? अन्यतर जीव उक्त प्रकारका उदीरक होता है। इसी प्रकारसे सब कर्मोके सम्बन्धमें कहना चाहिये। विशेष इतना है कि अवक्तव्य उदीरक किन्हीं विशेष कर्मोंका कहना चाहिये । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ।
एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन जैसे अनुभागउदीरणामें किया गया है वैसे ही यहां भी करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि जिस प्रकार भवप्रत्ययिक प्रकृतियोंका काल कहा है उसी प्रकार यहां परिणामप्रत्ययिक प्रकृतियोंका कहना चाहिए। यथा- मनुष्यगति नामकर्मकी प्रदेशउदीरणाके अवस्थितपदका काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। भवप्रत्ययिक प्रकृतियोंके अवस्थित पदके उदीरककालको छोडकर शेष कर्मोका एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तर; इनका कथन जिस प्रकार अनुभागउदीरणामें किया है उसी प्रकार यहां प्रदेश उदीरणामें भी भुजाकार पदका आश्रय लेकर करना चाहिए।
अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं। भुजाकार उदीरक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर उदीरक विशेष अधिक हैं । शेष चार ज्ञानावरण और चार दर्शनावरण प्रकृतियोंके अल्पबहुत्वकी भी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। निद्रा आदि पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंके अल्पबहुत्वकी भी प्ररूपणा इसी प्रकार ही है। विशेष इतना है कि इनके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं। अवक्तव्य उदीरक उनसे असंख्यात
का-ताप्रत्योः 'तहा कायव्वो' इति पाठः। * अप्रतौ 'भवाच्च रसु' इति पाठः । ४ अ-काप्रत्यो: 'उदीरयाकालं', ताप्रतौ 'उदीरया (य) कालं' इति पाठः। ताप्रती
'कालो च अतरं' इति पाठः। प्रतिषु 'उदीरणाए तप्पदेसउदीरणाए ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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