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________________ २६२) छक्खंडागमे संतकम्म अवविदउदी० । अवत्तव्वउ० असंखे० गुणा । अप्पदरउ० असंखे० गुणा । भुजगार० विसेसाहिया । सम्मामिच्छत्तस्स अवट्ठिदउदीरया थोवा। अवत्तव्वउ० असंखे० गुणा। भुजगार-अप्पदरउदीरया तुल्ला असंखे० गुणा । अणुभागउदोरणाए* वि सम्मामिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदरउदीरया तुल्ला कायव्वा । केण कारणेण भुजगार-अप्पदरउदीरयाणं तुल्लत्तं उच्चदे? जत्तिया मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो मिच्छत्तं गच्छंति। जत्तिया सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छति । एदेण कारणेण भुजगारउदीरएहितो अप्पदरउदीरयाणं तुल्लत्तं । पुव्वमणुभागउदीरणाए अप्पदरुदीरएहितो भुजगारुदीरया विसेसाहिया त्ति जं भणिदं तेणेदस्स कधं ण विरोहो? सच्चं विरोहो चेव, किंतु दोण्णमुवदेसाणं थप्पत्तपरूवणठें तदुभयणिद्देसो ण विरुज्झदे । सादासादसोलसकसाय-अट्टणोकसाय-णिरय-देव-मणुसगइ-बीइंदिय-तीइंदिय-चरिदिय-पंचिदियजादि--ओरालिय--वेउव्वियसरीर---ओरालिय---वेउव्वियसरीरंगोवंग---बंधणसंघाद---छसंठाण---छसंघडण----उवधाद----परघाद--आदावुज्जोव--- उस्सास-- पसत्थापसत्थाविहायगइ----तस---बादर---सुहुम---पज्जत्तापज्जत्त---पत्तेय--- गुणे हैं। सम्यक्त्वके अवस्थित उदीरक सबमें स्तोक हैं। अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर उदीरक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकार उदीरक विशेष अधिक हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थित उदीरक स्तोक हैं। अवक्तव्य उदीरक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकार व अल्पतर उदीरक दोनों तुल्य व असंख्यातगुणे हैं। अनुभागउदीरणामें भी सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार उदीरकों व अल्पतर उदीरकोंको तुल्य करना चाहिये । शंका-- भुजाकार व अल्पतर उदीरकोंकी समानता किम कारणसे कही जाती है ? समाधान--- जितने जीव मिथ्यात्वसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं उतने ही जीव सम्यग्मिथ्यात्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं। जितने जीव सम्यक्त्वसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं उतने ही सम्यग्मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं। इस कारण भुजाकार उदीरकोंसे अल्पतर उदीरकोंकी समानता कही गयी है। शंका-- पहिले अनुभाउदीरणामें " भुजाकार उदीरक अल्पतर उदीरकोंसे विशेष अधिक हैं" ऐसा जो कहा गया है, उससे इसका विरोध कैसे न होगा? समाधान-- सचमुच ही उससे इसका विरोध होता है, किन्तु दोनों उपदेशोंको स्थापित करनेकी प्ररूपणा करनेके लिये उन दोनोंका निर्देश करना विरुद्ध नहीं है। साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, नरकगति ; देवगति, मनुष्यगति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक व वैक्रियिक शरीर तथा उनके अंगोपांग, बंधन व संघात, छह संस्थान, छह संहनन, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, ४ प्रतिष 'उदीरयाए ' इति पार:। प्रतिष 'तुल्लं' इति पाठः। .ताप्रती 'जत्तिया सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छंति तत्तिया सम्पत्तादो सम्मामिच्छतं गच्छति' इति पाठ:। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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