________________
२०४ )
छक्खंडागमे संतकम्मं
अणुदीरया, सिया अणुदीरया च उदीरओ च, सिया अणुदीरया च उदीरया च । एवमणुक्कस्स वि पडिलोमेण तिण्णिभंगा वत्तव्वा । अट्ठत्रिहस्त दंसणावरणीयस्स णाणावरणभंगो | अचक्खुदंसणावरण-पंचंतराइयाणं च उक्कस्सअणुभागस्स नियमा उदीरया अणुदीरया च अत्थिं । सादासादाणं मोहणिज्जस्त सत्तावीसं पयडीगं चव्विहस्स आउअस्स आहारचउक्कवज्जाणं णामपयडीणं णीचुच्चागोदाणं च जहा णाणावरणस्स छभंगा परुविदा तहा परूवेदव्वा । सम्मामिच्छत्त- आहारचउक्कतिण्णमाणुपुव्वीणं च सोलस भंगा वत्तव्वा ।
जहणपदभंगविचए अट्ठपदं जहा उक्कस्सपदभंगविचए कढं तहा कायव्वं । पंचणाणावरणीय - णवदंसणावरणीय सत्तावीसमोहणीय- तिण्णिआउ-तिष्णिगदि-जादिचक्कवेउब्विय-तेजा-कम्मइयपयडीणं तब्बंधण-संघाद - अंगोवंगाणं पंचसंठाण - छसंघडण वष्ण-गंध-रस- फास - आदाव - तस - अगुरुअलहु - पसत्थापसत्य विहायगइ-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-आदेज्ज- सुस्सर दुस्सर - तित्थयर - णिमिणुच्चागोद-पंचंतराइयाणं च जहणणाभागस्स सिया सव्वे जीवा अणुदीरया, सिया अणुदीरया च उदीरओ च, सिया
उदीरक होता है, तथा कदाचित् बहुत जीव अनुदीरक और बहुत जीव उदीरक भी होते हैं । इसी प्रकारसे अनुत्कृष्ट अनुभागके सम्बन्धमें भी प्रतिलोम स्वरूपसे इन तीन भंगोंको कहना चाहिये । आठ प्रकार दर्शनावरणके भंगविचयकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । अचक्षुदर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियों सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागके नियमसे बहुत जीव उदीरक और बहुत जीव अनुदीरक भी होते हैं। साता व असाता वेदनीय, मोहनीयकी सत्ताईस प्रकृतियों, चार प्रकार आयुकर्म, आहारकचतुष्कको छोडकर शेष नामप्रकृतियों तथा नीच व ऊंच गोत्रके विषयमें जैसे ज्ञानावरणके छह भंगोकी प्ररूपणा की गयी है, वैसे ही उनकी प्ररूपणा करना चाहिये । सम्यग्मिथ्यात्व आहारकचतुष्क और तीन आनुपूर्वियोंके सोलह भंग कहना चाहिये ।
जिस प्रकार उत्कृष्ट -पद-भंगविचयमें अर्थपद बतलाया गया है उसी प्रकार जघन्य-पदभंगविचयमें भी बतलाना चाहिये । पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सत्ताईस मोहनीयप्रकृतियां, तीन आयु तीन गति, चार जातियां, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण प्रकृतियां एवं उनके बन्धन, संघात व अंगोपांग, पांच संस्थान, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आतप, त्रस, अगुरुलघु, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, सुस्वर, दुस्वर, तीर्थकर, निर्माण, ऊंचगोत्र और पांच अन्तराय; इनके जघन्य अनुभागके कदाचित् सब जीव अनुदीर, कदाचित् बहुत जीव अनुदीरक व एक उदीरक, तथा कदाचित् बहुत जीव अनुदीरक और बहुत ही जीव उदीरक भी होते हैं । विशेष इतना है कि तीर्थंकर प्रकृतिके अजघन्यकी प्ररूपणा
1
अ-काप्रत्योः 'पलिदोवमेण ' ताप्रती ' (पलिदोवमेग ) ' इति पाठ: । * अप्रती पंपंनराइयस्स उक्कस्स....उदीरया च अणुदीरया च ' इति पाठः । * ओषेण मिच्छ० सोलपक० सम्म० णवणोक० उक्क० अणुभागुदीरणाए सिया सवे अणदीरगा, सिया अणुदीरगा च उदीरगो च, सिया अणदीरगा च उदीरगा च । एवमृणुक्क० । णवरि उदीरगा पुव्वं व वत्तव्यं । सम्मामि० उक्क० अणुक्क० अणुभागुदी ० अदुभंगा । जयध प्रे. ब. पृ ५४६७ जयध. पृ. ८८.
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org