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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा ( २०३ कालस्स तिसमयपमाणब्भुवगमादो। मणुसाणुपुवीए जहण्णाणुभागंतरं जह० एगसमओ, अधवा खुद्दाभवग्गहणं दुसमऊणं, उक्क० असंखे० पो० परियट्टा। तिरिक्खाणुपुव्वीए जहण्णाणुभागंतरं जह० एगसमओ अधवा खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं चदुसमऊणं वा, उक्क० असंखेज्जा लोगा ।एइंदियजादि उस्सास-थावर-बादर-सुहुमपज्जत्तापज्जत्त-जस-अजसकित्ति-दूभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। चदुजादि दोविहायगइ-तस-सुभगादेज्जसरदुग-तेजा-कम्मइयसरीर-तब्बंधण-संघाद-पसत्थ-वण्ण-गंध-रस- णिधुण्ह-अगुरुअलहुअ-थिर-सुभ-णिमिणुच्चागोदाणं जहण्णाणुभागुदीरणंतरं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । तित्थयरस्स जहण्णाणुभागुदीरणंतरं णत्थि । एवमंतरं समत्तं । णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो उक्कस्सपदभंगविचओ जहण्णपदभंगविचओ चेदि। उक्कस्सपदभंगविचयस्स अट्ठपदं । तं जहा- जो उक्कस्सअणुभागस्स उदीरओ सो अणुक्कस्सअणुभागस्स अणुदीरओ, जो अणुक्कस्सअणुभागस्स उदीरओ सो उक्कस्सअणुभागस्स अणुदीरओ। जे जे पर्याड वेदंति तेसु पयदं, अवेदएसु अव्ववहारो। एदेण अटुपदेण पंचण्णं णाणावरणीयपयडीणं उक्कस्साणुभागस्स सिया सव्वे जीवा व नारकियोंमें अनाहारकालका प्रमाण तीन समय स्वीकार किया गया है। मनुष्यानुपूर्वीकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय अथवा दो समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण होता है, उत्कर्षसे वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है । तिर्यगानुपूर्वीकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय मात्र अथवा तीन समय कम या चार समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण होता है, उत्कर्षसे वह असंख्यात लोक मात्र काल तक होता है। एकेन्द्रियजाति उच्छ्वास, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, दुर्भग, अनादेय और नोचगोत्र ; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र होता है। चार जाति, दो विहायोगतियां, बस, सुभग, आदेय, स्वरद्विक, तैजसशरीर, काणशरीर, उन दोनोंके बन्धन व संघात, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्निग्ध, उष्ण, अगुरुलघु, स्थिर, शुभ, निर्माण और ऊंचगोत्र; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र काल तक होता है। तीर्थंकर प्रकृतिकी जघन्य अनुभागउदीरणाका अन्तर नहीं होता। इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकार है- उत्कृष्ट-पद-भंगविचय और जघन्य-पदभंगविचय। इनमें उत्कृष्ट-पद-भंगविचयका अर्थपद कहा जाता है। यथा- जो उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक होता है वह अनुत्कृष्ट अनुभागका अनुदीरक होता है । जो अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक होता है वह उत्कृष्ट अनुभागका अनुदीरक होता है। जो जिस प्रकृतिका वेदन करते हैं वे प्रकृत हैं, अवेदकोंका व्यवहार नहीं है। इस अर्थपदके अनुसार पांच ज्ञानावरण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके कदाचित् सब जीव अनुदीरक होते हैं, कदाचित् बहुत जीव अनुदीरक व एक जीव ताप्रतौ 'उदीरणा ( ओ ,' इति पाठः। मप्रति गाठोऽधम् । अ-क-ताप्रतिषु ' उक्कस्सअणुभागस्स उदीरओ णत्थि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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