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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे णामकम्मोउदीरणट्ठाणपरूवणा ( ८७ अट्ठावीस एगुणतीसं ति पंच उदीरणट्ठाणाणि होति । २१ । २५/२७/२८।२९।। तत्थ इगिवीसपयडिउदीरणटाणं वुच्चदे । तं जहा- णिरयगइ-पंचिदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-णिरयगइपाओग्गापुपुत्वी-अगुरुअलहुअ- तस-बादर-पज्जत्तथिराथिर-सुभासुभ-दूभग-अणादेज्ज-अजसगित्ति-णिमिणाणि त्ति एदाओ पयडीओ घेतूण एक्कवीसाए द्वाणं होदि । एदस्स ढाणस्स को सामी? विग्गहगदीए वट्टमाणो णेरइयो सम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी वा। एदस्स कालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया। __आणुपुव्वीमवणेदूण वेउब्वियसरीर-हुंडसंठाण-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-उवघादपत्तेयसरीरेसु पुव्वुत्तपयडीसु पक्खित्तेसु पणुवीसाए उदीरणट्ठाणं होदि । तं कस्स ? सरीरगहिदणेरइयस्स । तं केवचिरं कालादो होदि ? सरीरगहिदपढमसमयमादि कादूण जाव सरीरपज्जत्तीए अणिल्लेविदचरिमसमओ त्ति, अंतोमुत्तमिदि वुत्तं होदि। परघाद-अप्पसत्य विहायगदीसु पुग्विल्लपणुवीसपयडीसु पक्खित्तासु सत्तावीसपयडीणमुदीरणट्ठाणं होदि । तं केवचिरं कालादो होदि ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदपढमसमयमादि कादूण जाव आणपाणपज्जत्तीए अणिल्लेविदचरिमसमओ त्ति । एसो वि कालो जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुत्तमेत्तो। अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतियोंके पांच ( २१, २५, २७, २८, २९ ) उदीरणास्थान होते हैं। उनमें इक्कीस प्रकृतियोंके उदीरणास्थानकी प्ररूपणा करते हैं। यथा- नरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशकीति और निर्माण; इन प्रकृतियोंको ग्रहण कर इक्कीस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है। शंका-- इस स्थानका स्वामी कौन है ? समाधान-- विग्रहगतिमें वर्तमान सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नारक जीव उक्त स्थानका स्वामी है। इसका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय है। पूर्वोक्त प्रकृतियोंमेंसे आनुपूर्वीको कम करके वैक्रियिकशरीर, हुण्डकसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, उपघात और प्रत्येकशरीर, इन पांच प्रकृतियोंको मिला देनेपर पच्चीस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है। वह किसके होता है ? वह जिसने शरीर ग्रहण कर लिया है ऐसे नारक जीवके होता है। वह कितने काल तक होता है ? शरीर ग्रहण करने के प्रथम समयको आदि करके शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होनेके उपान्त्य समय तक होता है । अभिप्राय यह कि वह अन्तमुहूर्त काल तक रहता है। पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतियोंमें परघात और अप्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृतियोंको मिला देनेपर सत्ताईस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है। वह कितने काल रहता है ? वह शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेके प्रथम समयको आदि लेकर आनप्राण पर्याप्तिके पूर्ण होनेके उपान्त्य समय तक होता है । यह भी काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। ४ काप्रती 'परघादपसत्थ-', ताप्रती ‘परघाद- ( अ-) पसत्थ-' इति पाठः । Jain Educatioernational For Private & Perschal use only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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