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________________ ८८ ) छक्खंडागमे संतकम्म पुग्विल्लसत्तावीसपयडीसु उस्सासे पक्खित्ते अट्ठावीसपयडीणं उदीरणट्ठाणं होदि । तं केवचिरं कालादो होदि? आणपाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदपढमसमयमादि कादूण जाव भासापज्जत्तीए अणिल्लेविदचरिमसमओ ति । एसो वि कालो जहण्णुवकस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तो। पुटिवल्लअट्ठावीसपयडीसु दुस्सरे पविखत्ते एगुणतीसपयडीणमुदीरणट्ठाणं होदि। एदस्स अद्धाणं भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पढमसमयमादि कादूण जाव अप्पप्पणी आउद्विदीए चरिमसमओ त्ति । तस्स कालो जहणेण दसवस्ससहस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि, उक्कस्सेण अंतोमुत्तूणतेत्तीसं सागरोवमाणि । तिरिक्खगदीए एक्कवीस-वउवीस-पंचवीस-छवीस-सत्तावीस-अट्ठावीस-एगणतीसतीस-एक्कत्तीसं ति णव उदीरणढाणाणि । तत्थ एइंदियाणमेक्कवीस-च उवीस-पंचवीसछव्वीस-सत्तावीसं ति पंच उदीरणट्ठाणाणि। आदावुज्जोवाणमणुदएण एइंदियस्स सत्तावीसट्ठाणेण विणा चत्तारि उदीरणट्ठाणाणि। आदावुज्जोवुदएण सहिदए इंदियस्सपणुवीसट्ठाणेण विणा चत्तारि उदीरणट्ठाणाणि । तत्थ आदावुज्जोवुदयविरहिदएइंदियस्स भण्णमाणे तिरिक्खगइ-एइंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी--अगुरुअलहुअ-थावर-बादर-सुहुमाणमेक्कदरं पज्जत्तापज्जत्ताणमेककदरं थिराथिरं सुभासुभं दूभगं अणादेज्जं जस-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणमेदाहि पूर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतियोंमें उच्छ्वासके मिला देनेपर अट्ठाईस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है। वह कितने काल तक रहता है ? आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त होने के प्रथम समयको आदि करके भाषापर्याप्तिके पूर्ण होने के उपान्त्य समय तक रहता है। यह भी काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियोंमें दुस्वरके मिला देनेपर उनतीस प्रकृतियोंका उदीरणास्थान होता है। इसका अध्वान भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त होने के प्रथम समयको आदि करके अपनी अपनी आय:स्थितिके अन्तिम समय तक है। उसका काल जघन्यसे अन्तर्मुहर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है । तिर्यग्गतिमें इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतियोंके नौ उदीरणास्थान हैं। उनमें एकेन्द्रिय जीवोंके इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतियोंके पांच उदीरणास्थान सम्भव हैं। उनमें से आतप व उद्योतके उदयसे रहित एकेन्द्रिय जीवके सत्ताईसके विना चार उदीरणास्थान होते हैं। आतप व उद्योतके सहित एकेन्द्रिय जीवके पच्चीस प्रकृति रूप स्थानके विना चार उदीरणास्थान होते हैं । उनमें आतप व उद्योतके उदयसे रहित एकेन्द्रिय जीवके उक्त चार स्थानोंका कथन करनेपर तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, स्थावर, बादर व सूक्ष्ममें से एक, पर्याप्त व अपर्याप्तमेंसे एक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, यशकीति और अयशकीतिमें से एक तथा निर्माण, इन इक्कीस www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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