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________________ सिरि भगवंत पुष्कवंत भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीरसेनाइरिथ - विरइय-धवला - टीकासमणिदो तत्थ संतक मगभिएस सेस - अठ्ठारह - अणुयोगद्दारेसु ७ णिबंधणाणुयोगद्दारं fugaragकम्मं केवलणाणेण दिट्ठपरमट्ठे । मिरिम वोच्छामि णिबंधणणुयोगं ॥ भूदबलिभडारएण जेणेदं सुत्तं देसामासियभावेण लिहिदं तेणेदेण सुत्तेण सूचिदसेस अट्ठारस अणुयोगद्दाराणं किंचि संखेवेग परूवणं कस्सामो । तं जहा - निबध्यते तदस्मिन्निति निबंधनम्, जं दव्वं जम्हि णिवद्धं तं णिबंधणं त्ति भणिदं होदि । णिबंधणे त्ति अनुयोगद्दारे निबंधगं ताव अपयदणिबंध णणिराकरणट्ठ णिक्खिवियव्वं तं जहा Jain Education International जिन्होंने आठ कर्मोंका अन्त करके प्रगट हुए केवलज्ञानके द्वारा पदार्थ के यथार्थ स्वरूपको देख लिया है ऐसे अरिष्टनेमि जिनेन्द्र ( बाईसवें तीर्थंकर ) को नमस्कार करके निबन्धन अनुयोगद्वारा कथन करते हैं । भूतबलि भट्टारकने चूंकि यह सूत्र देशामर्शक रूपसे लिखा है, अत एव इस सूत्र के द्वारा सूचित शेष अठारह अनुयोगद्वारोंकी कुछ संक्षेपसे प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-' निबध्यते तदस्मिन्निति निबन्धनम्' इस निरुक्ति के अनुसार जो द्रव्य जिसमें सम्बद्ध है. उसे निबन्धन कहा जाता है । 'निबन्धन' इस अनुयोगद्वार में पहिले अपकृत निबन्धनके निराकरणार्थ निबन्धका निक्षेप करते हैं । वह इस प्रकार है- नामनिबन्धन, स्थापनानिबन्धन, द्रव्यनिबन्धन, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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