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________________ ( १७ ) अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमको प्राप्त कराई जानेवाली स्थितिका नाम विपरिणामना स्थिति है । अपकर्षित, उत्कर्षित अथवा अन्य प्रकृतिको प्राप्त कराया गया अनुभाग विपरिणामित अनुभाग कहलाता है । जो प्रदेशपिंड निर्जराको प्राप्त हुआ है अथवा अन्य प्रकृतिको प्राप्त कराया गया है वह प्रदेशपरिणामना कही जाती है । इनमें स्थितिविपरिणामनाकी प्ररूपणा स्थितिसंक्रम, अनुभाग विपरिणामनाकी प्ररूपणा अनुभागसंक्रम और प्रदेशविपरिणामनाकी प्ररूपणा प्रदेशसंक्रमके समान करने योग्य बतलायी गयी है । १० उदयानुयोगद्वार - यहाँ नोआगमकर्मद्रव्य उदयको प्रकृत बतलाकर उसके प्रकृतिउदय आदि के भेदसे चार भेद बतलाये हैं । उत्तर प्रकृति उदयकी प्ररूपणा में स्वामित्वका कथन करते हुए किन प्रकृतियों के कौन-कौनसे जीव वेदक हैं, इसका विवेचन किया गया है । अन्य काल आदि अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा स्वामित्व सिद्ध करके करना चाहिये । ऐसा उल्लेख करते हुए यहां अल्पबहुत्व के विवेचनमें जो प्रकृति उदीरणाअल्पबहुत्वसे कुछ विशेषता है उसका उपदेशभेदके अनुसार निर्देशमात्र किया गया है । स्थितिउदय स्थितिउदय की प्ररूपणा में पहिले स्थितिउदय प्रमाणानुगम, स्वमित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, संनिकष और अल्पबहुत्व इन अधिकारों के अनुसार मूलप्रकृतिस्थितिउदयकी प्ररूपणा की गयी है । यह उदयकी प्ररूपणा प्रायः उदीरणाप्ररूपणा के ही समान निर्दिष्ट की गयी है । उत्तरप्रकृतिस्थितिउदय - यहाँ एवं उत्कृष्ट स्थिति उदयके प्रमाणानुगमकी प्ररूपणा उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा प्रमाणानुगमके समान बतलाते हुए उसे उदयस्थितिसे अधिक बतलाया गया है । जघन्य स्थिति उदयकी प्ररूपणा में नामनिर्देशपूर्वक कुछ कर्मोंका जघन्य प्रमाणानुगम बतलाकर शेष कर्मोंके प्रमा गम, सभी कर्मो स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, संनिकर्ष और अल्पबहुत्व इन अधिकारोंकी भी प्ररूपणा स्थिति उदीरणाके समान निर्दिष्ट भी गयी है। अनुभाग उदय - यहाँ मूलप्रकृतिअनुभागउदय और उत्तरप्रकृतिअनुभागउदयकी प्ररूपणा चौबीस अनुयोगद्वारोंके द्वारा करणीय बतलाकर जघन्य स्वामित्वके विषय में कुछ थोडीसी विशेषताका भी उल्लेख किया गया है । प्रदेशउदय - यहाँ मूलप्रकृति प्रदेश उदयकी प्ररूपणा में सब अनुयोगद्वारों के द्वारा जानकर करने योग्य बतलाकर उत्तरप्रकृतिप्रदेश उदयकी प्ररूपणा में स्वामित्वके परिज्ञानार्थ ' सम्मत्तप्पत्तीए ' आदि २ गाथाओंके द्वारा १० गुणश्रेणियों का निर्देश करके उक्त गुणश्रेणियों में कौनसी गुणश्रेणियाँ भवान्तरमें संक्रान्त होती है, इसका उल्लेख करते हुए उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेश उदयविषयक स्वामित्वका विवेचन किया गया है । एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व आदि अन्य अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा पूर्वोक्त स्वामित्व प्ररूपणा से ही सिद्ध करने योग्य बतलाकर तत्पश्चात् उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशउदयविषयक अल्पबहुत्वका विवेचन किया गया है। भुजाकार प्रदेशउदयकी प्ररूपणा में प्रथमतः अर्थपदका निर्देश करके तत्पश्चात् स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा की गयी है । एक जीवकी अपेक्षा काल प्ररूपणा प्रथमतः नागहस्ती क्षमाश्रमणके उपदेशानुसार और तत्पश्चात् अन्य उपदेशके अनुसार की गयी है । पदनिक्षेपप्ररूपणा में स्वामित्वका विवेचन करते हुए तत्पश्चात् अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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