________________
( १६ ) हैं जो कि यहाँ प्रकृत धवलामें बतलाये गये हैं। यथा- सर्वकरणोपशामनाके गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना तथा देशकरणोपशामनाके उनसे विपरीत अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना ।
यहाँ अप्रशस्तोपशामनाको अधिकार प्राप्त बतलाते हुए श्री वीरसेनाचार्यने उसके अर्थपदका कथन करते हए बतलाया है कि जो प्रदेश पिण्ड अप्रशस्तोपशामनाके द्वारा उपशान्त किया गया है उसका अपकर्षण किया जा सकता है, उत्कर्षण किया जा सकता है, अन्य प्रकृतिमें संक्रम कराया जा सकता है परन्तु उदयावलीमें प्रवेश नहीं कराया जा सकता है। इस अर्थपदके अनसार यहाँ पहिले स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर तथा अल्पबहुत्व, ( भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि प्ररूपणाओंकी यहाँ सम्भावना नही है )। इन अधिकारों के द्वारा मूलप्रकृति उपशामनाकी प्ररूपणा अतिसंक्षेप में की गयी है। उत्तरप्रकृतिउपशामनाको प्ररूपणा भी इन्हीं अधिकारों के द्वारा संक्षेपमें की गयी है ।
प्रकृतिस्थानोपशामनाकी प्ररूपणामें ज्ञानावरणादि कर्मोके सम्भव स्थानोंका उल्लेख मात्र करके उनकी प्ररूपणा स्वामित्व आदि अधिकारोंके द्वारा करना
करना चाहिये, ऐसा उल्लेख मात्र किया गया है । यहाँ भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि उपशामनाओंकी भी सम्भावना है।
स्थिति उपशामना- यहाँ पहिले मूल प्रकृकियोंके आश्रयसे क्रमश: उत्कृष्ट और जघन्य अद्धाछेदको प्ररूपणा करके तत्पश्चात् स्वामित्व आदि शेष अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा स्थिति उदीरणाके समान करना चाहिये, ऐसा संकेत किया गया है।
अनुभाग उपशामना- यहाँ मूलप्रकृतिअनुभागउपशामनाको सुगम बतलाकर उत्तरप्रकृतिअनुभाग उपशामनामें उत्कृष्ट व जघन्य प्रमाणानुगम, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगवचिय, काल, अन्तर और संनिकर्ष; इन अनुयोगद्वारोंको प्ररूपणा यथासम्भव अनुभागसत्कर्मके समान करना चाहिये ऐसा निर्देश किया गया है । यहाँ तीव्रता और मदन्ताके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणाको जैसे अनुभागबन्ध में चौसठ पदों द्वारा तद्विषयक अल्पबहुत्वकी की गयी है वैसे करने योग्य बतलाया है ।
प्रदेश उपशामना- यहाँ 'प्रदेश उपशामनाकी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये' इतना मात्र संकेत किया गया है।
विपरिणामोपक्रम- प्रकृतिविपरिणमना आदिके भेदसे विपरिणामोपक्रम चार प्रकारका है। इनमें प्रकृतिविपरिणमनाके दो भेद हैं- मूलप्रकृतिविपरिणमना और उत्तरप्रकृतिविपरिणमना। मूलप्रकृतिविपरिणमनाके भी दो भेद हैं- देशविपरिणमना और सर्वविपरिणमना ।
देशविपरिणमना- जिन प्रकृतियों का अधःस्थितिगलनाके द्वारा एकदेश निर्जीण होता है उसका नाम देशविपरिणमना है।
सर्वविपरिणमना- जो प्रकृति सर्वनिर्जराके द्वारा निर्जीर्ण होती है वह सर्वविपरिणमना कहलाती है।
उत्तरप्रकतिविपरिणमना- देश निर्जरा या सर्वनिर्जराके द्वारा निजीर्ण प्रकृति तथा जो अन्य प्रकतिमें देशसंक्रमण अथवा सर्वसंक्रमणके द्वारा संक्रान्त होती है इसका नाम उत्तरप्रकृतिविपरिणमना है ।
इस स्वरूपकथनके अनुसार यहाँ मूल और उत्तर प्रकृतिविपरिणमनाकी प्ररूपणा स्वामित्व आदि अधिकारोंके द्वारा करना चाहिये, ऐसा उल्लेख भर किया गया है । इसका कारण तद्विषयक उपदेशका अभाव ही प्रतीत होता है । यहाँ भुजाकर, पदनिक्षेप और वृद्धिकी सम्भावना नहीं है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org