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________________ ( १५ ) आचार्य यतिवृषभ द्वारा विरचित कसायपाहुडके चूर्णिसूत्रोंमें भी इन उपशामना भेदोंके सम्बन्धमें प्राय: इसी प्रकार और इन्हीं शब्दों में कथन किया गया है। कसायपाहुडसे इतनी ही विशेषता है कि यहाँ सर्वकरणोपशामनाका 'गुणोपशामना' और देशकरणोपशामनाका अगुणोपशामना' इन नामान्तरोंका उल्लेख अधिक किया गया है । कसायपाहुडकी जयधवला टीकामें उपशामनाके पूर्वोक्त भेदोंमेंसे कुछका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है- 2 अकरणोपशामना -- कर्मप्रवाद नामका जो आठवाँ पूर्वाधिकार है वहाँ सब कर्मों सम्बन्धी मूल और उत्तर प्रकृतियों की विपाक पर्याय और अविपाक पर्यायका कथन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार बहुत विस्तार किया गया है । वहाँ इस अकरणोपशामनाकी प्ररूपणा देखना चाहिये । देशकरणोपशामना-- दर्शनमोहनीयका उपशम कर चुकनेपर उदयादि करणों में से कुछ तो उपशान्त और कुछ अनुपशान्त रहते हैं । इसलिये यह देशकरणोपशामना कही जाती है । xxx द्वितीय पूर्वकी पाँचवी 'वस्तु' से प्रतिबद्ध कर्मप्रकृति नामका चौथा प्राभृत अधिकार प्राप्त है । वहाँ इस देशकरणोपशामनाकी प्ररूपणा देखना चाहिये, क्योंकि, वहाँ इसकी प्ररूपणा विस्तार पूर्वक की गयी है । सर्वकरणोपशामना -- -- सब करणोंकी उपशामनाका नाम सर्वकरणोपशामना है । अप्रशस्तोपशामना -- संसारपरिभ्रमणके योग्य अप्रशस्त परिणामोंके निमित्तसे होनेके कारण यह अप्रशस्तोपशामना कही जाती है । इन उपशामना भेदों का उल्लेख प्रायः इसी प्रकारसे श्वेताम्बर कर्मप्रकृति ग्रन्थ में पाया जाता है । इस कारणकी प्ररूपणा प्रारम्भ करते हुए वहाँ सर्व प्रथम यह गाथा प्राप्त होती है- करणकयाकरणावि य दुविहा उवसामणत्थ बिइयाए । अकरण-अणुइन्नाए अणुओगधरे पणिवयामि ॥ १ ॥ इसमें उपशामनाके करणकृता और अकरणकृता ये वे ही दो भेद बतलाये गये हैं । इनमें द्वितीय अकरणकृता उपशामनाके वे दो ही नाम यहाँ भी निर्दिष्ट किये गये हैं- अकरणकृता और अनुदीर्णा । यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य ' अणुओगधरे पणिवयामि' वाक्यांश है । इसकी संस्कृत टीकामें श्रीमलयगिरि सूरिने लिखा है- इस अकरणकृतोपशामना के दो नाम हैं-- अकरणोपशामना और अनुदीरणोपशामना । उसका अनुयोग इस समय नष्ट हो चुका है । इसीलिये आचार्य ( शिवशर्मसूरि ) स्वयं उसके अनुयोगको न जानते हुए उसके जानकार विशिष्ट प्रतिभासे सम्पन्न चतुर्दश पूर्ववेदियों को नमस्कार करते हुए कहते हैं-fasure इत्यादि । यहाँ द्वितीय गाथा में सर्वोपशामना और देशोपशामना के भी वे ही दो दो नाम निर्दिष्ट किये गये एतो सुतविहासा । जहा । उसमा कदिविधा ति ? उरसामणा दुविहा करणोवसामणा अकरणोवसामणा च । जा सा अकरणोवसामणा तिस्से दुवे णामधेयाणि-- अकरणोवसामणा त्ति वि अणुदिण्णोवसामगा सिवि । एसा कम्मपवादे ! जा सा करणोवसामणा सा दुविहा-- देसकरणोवसामणा ति वि सव्वकरणोवसामणा त्तिवि । देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणि देसक रणोवसामणा त्ति वि अप्पसत्थउवसामणा त्तिवि । एसा कम्मपयडीसु । जा सा सव्वकरणोवसामना तिस्से विदुवे णामाणि -- सव्वकरणोवसामणा त्तिवि पसत्यकरणोवसामणा त्तिवि । एदाए तत्थापयदं । क. पा. सुत्त पृ. ७०७-८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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