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________________ ११८ ) छक्खंडागमे संतकम्म सुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-जसगित्ति-तित्थयर-णिमिणणामाणं जहण्णढिदिउदीरओ को होदि ? चरिमसमयसजोगी। आदावणामाए जहण्णदिदिउदीरओ को होदि ? जो बादरपुढविजीवो पज्जत्तओ हदसमुप्पत्तिएण सव्वचिरं हेढा बधियूण तदो उर्वार वा समट्टिदियं वा बंधिय आवलियादिक्कंतस्स आदावणामाए जहण्णढिदिउदीरणा। उज्जोवणामाए जहण्णट्ठिदिउदीरणा कस्स ? जो बादरेइंदिओ पज्जत्तयदो हदसमुप्पत्तियकम्मेण सव्वचिरं हेढदो बंधिय पुणो उवरि समद्विदियं वा बंधिय आवलियादिक्कंतस्सल । थावर-सुहम-अपज्जत्त-साहारणणामकम्माणं जहण्णदिदिउदोरणाए एइंदियस्स* सामित्तं वत्तव्वं । दुभग-अणादेज्ज-अपज्जत्त-अजसगित्तीणमेइंदियस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण पंचिदिएसुप्पाइय पडिवक्खबंधगद्धाओ गालिय तदो आवलियादीदस्स वत्तव्वं । णीचागोदस्त तिरिक्खगइभंगो । उच्चागोदस्स जहण्णट्टिदिउदीरणा अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थंकर और निर्माण; इन नामकर्मोंकी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? उनका उदीरक अन्तिम समयवर्ती सयोगकेवली होता है । आतप नामकर्म सम्बन्धी जघन्य स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मसे सर्वचिर काल तक कमको बांधकर पश्चात् उससे अधिक अथवा समान स्थितिको बांधकर आवली मात्र कालको विताता है उसके आतप नामकर्म सम्बन्धी जघन्य स्थितिकी उदीरणा होती है। उद्योत नामकर्म सम्बन्धी जवन्य स्थितिकी उदीरणा किसके होती है ? जो बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मसे सर्वचिर काल कर्मको बांधकर, फिर उससे अधिक अथवा समान स्थितिको बांधकर आवली मात्र कालको विताता है उसके उद्योत सम्बन्धी जघन्य स्थितिकी उदीरणा होती है। स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण नामकर्मोंकी जघन्य स्थिति सम्बन्धी उदीरणाका स्वामित्व एकेन्द्रियके जीवके कहना चाहिये । दुर्भग, अनादेय अपर्याप्त और अयशकीर्तिकी जघन्य स्थिति सम्बन्धी उदीरणाके स्वामित्वका कथन ऐसे एकेन्द्रिय जीवके करना चाहिये जिसने हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ पंवेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धककालोंको गलाकर पश्चात् आवली मात्र कालको विताया है। नीच गोत्र सम्बन्धी जघन्य स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान करना चाहिये। उच्चगोत्र सम्बन्धी जघन्य स्थिति-उदीरणा किसके होती है ? वह अन्तिम समयवर्ती सयोगकेवलीके होती है। गतियोंमें जानकर जघन्य स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा करना चाहिये । इस X सेसाणुदीरणते भिण्णमुहुत्तो ठिईकालो ॥ क प्र. ४, ४२. शेषागां च प्रकृतीनां मनुजगति-पंचेन्द्रियजाति-प्रथमसंहननौदारिकसप्तक-संस्थानषट्कोपधान-परघातोच्छ्वास-प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति-त्रस-बादरपर्याप्त-प्रत्येक-सुभग-सुस्वरादेय-यशःकीनि-तीर्थकरोच्वंर्गोत्र दुःस्वरलक्षणानां द्वात्रिंशत्प्रकृतीनां पूर्वोक्तानां च नामध्रुवोदीरणानां त्रयस्त्रिशत्प्रकृतीनां सर्वसंख्यया पंचषष्टिसंख्यानां सयोगिके बलिचरमसमये जघन्या स्थित्युदीरणा । तस्याश्च जघन्यायाः कालो भिन्नमुहूर्तोऽन्तर्मुहुर्नमित्यर्थः । ( मलय.) ४ तारतो 'आवलियादिक्कं ( तो-) तस्म' इति पाउः। * काप्रती 'उदीरणा एइंदियस्स', ताप्रती — उदीरणा० एइंदियस्स' इति पाठः। * काप्रती 'समए सजोगिस्स ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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