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________________ उवक्क माणुयोगद्दारे उत्तरपयडिउदीरणाए एगजीवेण कालो ( ६१ असणण अण्णदरा नियमा देवा देवीओ संजदासंजदाQ संजदा च उदीरेंति । दूभगअणाज्जाणं मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव असंजत्रसम्माइट्ठि त्ति उदीरणा । सुस्सर दुस्सराणं मिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा । णवरि बेइंदियो तेइंदियो चउरदियो पंचिदियो वा भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदो चेव उदीरेदि । तित्थयरणामाए तित्थयरो उप्पण्णकेवलणाणो सजोगी चेव उदीरगो । उच्चागोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदी रणा । णवरि मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा सिया उदीरेदि, देवो देवी वा संजदो वा णियमा उदीरेंति, संजदासंजदो सिया उदीरेदि । णीचागोदस्स मिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव संजदासंजदस्स उदीरणा । णवरि देवेसु णत्थि उदीरणा, तिरिक्ख णेरइएसु थिमा उदीरणा, मणुसेसु सिया उदीरणा * । एवं सामित्तं समत्तं । जीवेण कालो - आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स उदीरओ अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो । एवं सेसचत्तारिणाणावरणीय चत्तारिदंसणावरणीय तेजाकम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस - फास - अगुरुअलहुअ-थिराथिर- सुभासुभ- णिमिण-पंचं तराइari दोह भंगेहि कालपरूवणा कायव्या । णिद्दाणिद्दा- पयलापयला थी गिद्धीणमुदीरणाए जीव उसकी उदीरणा करते हैं; तथा देव व देवियां, संयतासंयत एवं संयत जीव नियमसे उसकी उदीरणा करते हैं । दुभंग व अनादेयकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक होती है । सुस्वर और दुस्वरकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली के अन्तिम समय तक होती है । विशेष इतना है कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव भाषापर्याप्ति से पर्याप्त होकर ही उनकी उदीरणा करता है। तीर्थंकर नामकर्मका उदीरक जिसके केवलज्ञान उत्पन्न हो चुका है ऐसा सयोगी तीर्थंकर ही होता है । उच्चगोत्रकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है । विशेष इतना है कि मनुष्य और मनुष्यनी उसकी कदाचित् उदीरणा करते हैं, देव-देवी तथा संयत जीव उसकी उदीरणा नियमसे करते हैं, तथा संयतासंयत जीव कदाचित् उदीरणा करते हैं। नीचगोत्रकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक होती है । विशेष इतना है कि देवोंमें उसकी उदीरणा सम्भव नहीं है, तिर्यंचों व नारकियोंमें उसकी उदीरणा नियमसे तथा मनुष्योंमें कदाचित् होती है । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। । एक जीवकी अपेक्षा काल- आभिनीबोधिकज्ञानावरणीयका उदीरक अनादि - अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित जीव है । इसी प्रकारसे शेष चार ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय; इन प्रकृतियों (ध्रुवोदयी) के उदीरणाकालकी प्ररूपणा इन दो भंगों से करनी चाहिये । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय है, उच्च चिय जइ देवो सुभग ए (इ) ज्जाग गब्भवक्कंतिओ य क प्र. ४, १६. अमरा केई मणुया व नीयमेवण्णे । चउगया दुभगाई तित्थयरो केवली तित्थं । पं. सं. ४, १८. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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