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________________ छक्खंडागमे संतकम्म तसणामाए तसकाइयमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा। बादरणामाए बादरमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा। पज्जत्तणामाए पज्जत्तमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिवरिमसमओ त्ति उदीरणा । पत्तेयसरीरणामाए पत्तेयसरीरमिच्छाइटिप्पडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ ति उदीरणा। णवरि आहारओ चेत्र उदीरओ, णाणाहारओ। थावरणामाए थावरो मिच्छाइट्ठी उदीरओ। सुहुमणामाए सुहमेइंदियो उदीरओ। अपज्जत्तणामाए अपज्जत्तो मिच्छाइट्ठी उदीरओ। साहारणसरीरणामाए अण्णदरो साहारणकाइयो आहारओ चेव उदीरओ। जसकित्तिणामाए बीइंदियो तीइंदियो चरिदियो पंचिदियो वा पज्जत्तो चेव उदीरओ, एइंदियो वि बादरो पज्जत्तो तेउक्काइय-वाउकाइयवदिरित्तो उदीरेदि, संजदासंजदा संजदा च णियमा जसगित्तीए उदीरया जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति । जदा पग्गहेण पग्गहिदो तदा अजसगित्तिवेदगो वि जसिित्त वेदयदि, तव्वदिरित्तो दो वि वेदयदि । परगहो णाम संजमो संजमासंजमो च । अजसगित्तिणामाए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति उदीरणा । सुभगादेज्जाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा । णवरि गब्भोवक्कं तियसण्णि त्रस नामकर्मकी उदीरणा त्रसकायिक मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली के अन्तिम समय तक होती है। बादर नामकर्मकी उदीरणा बादर मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है। पर्याप्त नामकर्मकी उदीरणा पर्याप्त नामकर्मके उदयसे संयक्त मिथ्यादष्टिसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है। प्रत्येकशरीर नामकर्मकी उदीरणा प्रत्येकशरीर मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है। विशेष इतना है कि आहारक जीव ही उसका उदीरक होता है. अनाहारक नहीं होता। स्थावर नामकर्मका स्थावर मिथ्यादष्टि उदीरक है। सुक्ष्म नामकर्मका सक्ष्म एकेन्द्रिय जीव उदीरक है । अपर्याप्त नामकर्मका अपर्याप्त नामकर्मके उदयसे संयुक्त मिथ्यादृष्टि उदीरक है । साधारणशरीर नामकर्मका उदीरक अन्यतर साधारणकायिक आहारक जीव ही होता है । यशकीर्ति नामकर्मका उदीरक द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंवेन्द्रिय पर्याप्त ही होता है; तेजकायिक व वायुकायिकको छोडकर एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त जीव भी उसकी उदीरणा करता है ; तथा संयतासंयत और सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक संयत जीव भी नियमसे यशकीतिके उदीरक हैं । जब प्रग्रहसे प्रगृहीत अर्थात् संयमको स्वीकार करता है तब अयशकीर्तिका वेदक भी यशकीर्तिका वेदक होता है, शेष जीव दोनोंका वेदन करते हैं। प्रग्रहका अर्थ संयम और संयमासंयम है। अयशकीर्ति नामकर्मकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक होती है। सुभग और आदेयकी उदीरणा मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवलीके अन्तिम समय तक होती है। विशेष इतना है कि अन्यतर गर्भोपकान्त संज्ञी व असंज्ञी ४ ताप्रत 'पज्जत्तणामाए मिच्छाइटिप्पहुडि ' इति पाठः। * काप्रती 'संजदासजदा संजदो', ताप्रती 'संजदासंजदो संजदो' इति पाठः । ॐ नेरइया सुहुमतसा व'जय सुहमा य तह अपनत्ता। जगगितिउदीरगाइज्जसू भगनानाण सण्णि सुरा । पं. सं. ४, १७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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