SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२ ) आगेके अनन्तर समयमें भी उतनी ही स्थितियों की उदीरणा की जानेपर यह अवस्थित उदीर गा कहलाती है। जिसने पहिले स्थितिउदीरणा नहीं की है किन्तु अब कर रहा है उसकी यह उदीरणा अवक्तव्य उदीरणा कही जाती है। इस प्रकारसे अर्थपदका कथन करके तत्पश्चात् यहाँ भजाकार स्थिति उदीरणाकी प्ररूपणा स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर और अल्पबहुत्व इन अधिकारोंके द्वारा यथासम्भव की गयी है। तत्पश्चात् पदनिक्षेपका संक्षिप्त विवेचन करते हुए वृद्धि उदीरणाकी प्ररूपणाके इन अधिकारोंके द्वारा जानकर करनेका संकेतमात्र किया है- स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तर। इसके बाद फिर इसी वृद्धिप्ररूपणाके आश्रयसे अल्पबहुत्वका विचार विस्तारसे किया गया है। अनुभागउदीरणा-- अनुभागउदी रणाकी मूलप्रकृति उदीरणा और उत्तरप्रकृतिउदी रणा इन दो भेदोंमें विभक्त करके उनमें मूलप्रकृति उदीरणाका कथन जानकर करनेका उल्लेख मात्र किया गया है। उत्तरप्रकृतिअनभाग उदीरणाकी प्ररूपणामें इन २४ अनयोगद्वारोंका निर्देश करके यह कहा गया है कि इन अनुयोगद्वारोंका कथन करके तत्पश्चात् भुजाकार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थानका भी कथन करना चाहिये। वे अनुयोगद्वार ये हैं-- १ संज्ञा, २ सर्वउदीरणा, ३ नोसर्व उदीरणा, ४ उत्कृष्ट उदीरणा, ५ अनुत्कृष्ट उदीरणा, ६ जघन्य उदीरणा, ७ अजघन्य उदीरणा, ८ सादिउदीरणा, ९ अनादि उदीरणा, १० ध्रुवउदीरणा, ११ अध्रुवउदीरणा, १२ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, १३ एक जीवकी अपेक्षा काल' १४ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, १५ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, १६ भागाभागानुगम, १७ परिमाण, १८ क्षेत्र, १९ स्पर्शन, २० नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, २१ नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, २२ भाव, २३ अल्पबहुत्व और २४ संनिकर्ष । इनमें संज्ञाके घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा इन दो भेदोंका निर्देश करके फिर घातिसंज्ञाकी प्ररूपणा करते हुये यह बतलाया है कि आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण अवधिज्ञानावरण और मन:पर्ययज्ञानावरण इन चारकी उत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती तथा अनुत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती एवं देसघाती भी होती है। केवलज्ञानावरणकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट उदीरणा सर्वघाती ही होती है। इसी प्रकारसे दर्शनावरण आदि अन्य अन्य प्रकृतिभेदोंके सम्बन्धमें भी इस धातिसंज्ञाकी प्ररूपणा की गयी है। स्वामित्व-- यहाँ ये चार अनुयोगद्वार निर्दिष्ट किये गये हैं-- प्रत्ययप्ररूपणा, विपाकप्ररूपणा, स्थानपरूपणा और शुभाशुभप्ररूपणा । प्रत्ययप्ररूपणामें यह बतलाया है कि पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, तीन दर्शनमोहनीय और सोलह कषायकी उदीरणा परिणामप्रत्ययिक है। नौ नोकषायोंकी पूर्वानु - पूर्वीसे असंख्यातवें भाग प्रमाण परिणामप्रत्ययिक तथा पश्चादानुपूर्वीसे असंख्यात बहुभाग प्रमाण भवप्रत्ययिक है। साता व असाता वेदनीय, चार आयु कर्म, चार गति और पाँच जातिकी उदीरणा भवप्रत्ययिक है। औदारिकशरीरकी उदीरणा तिर्यञ्च और मनुष्योंके भवप्रत्यायिक है । वैक्रियिकशरीरकी उदीरणा देवनारकियोंके भवप्रत्ययिक तथा तिर्यंच-मनुष्योंके परिणामप्रत्ययिक है। इसी क्रमसे आगे भी यह प्ररूपणा की गयी है। विपाकप्ररूपणामें बतलाया है कि जैसे पहले निबन्धनकी प्ररूपणा की गयी है [देखिये पृ. १७४ ] उसी प्रकार यहाँ विपाककी भी प्ररूपणा करना चाहिये । स्थानप्ररूपणामें मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियोंकी उदीरणाके उत्कृष्ट आदि भेदोंमें एकस्थानिक और द्विस्थानिक आदि अनुभागस्थानोंकी सम्भावना बतलायी गयी है। शुभाशुभप्ररूपणामें पुण्य-पापरूप प्रकृतियोंका नामोल्लेख मात्र किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy