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________________ ( १३ ) इसके पश्चात् मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियोंके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट आदि उदीरणा भेदोंके स्वामियोंकी प्ररूपणा यथाक्रमसे की गयी है । आगे इसी क्रमसे पूर्वोक्त उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य एवं अजघन्य उदीरणा भेदोंकी एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोकी अपेक्षा काल व अन्तर तथा स्वस्थान व परस्थान संनिकर्षकी भी प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार पूर्वोक्त २४ अनुयोगद्वारों में इतने अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा करके शेष अनुयोगद्वारोंके सम्बन्धमें यह कह दिया है कि उनकी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये । अन्तमें अल्पबहुत्व ( २३वें ) अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा विस्तारसे की गयी है। ___ भुजाकार अनुभागउदीरणा - यहाँ अर्थपदकी प्ररूपणा करते हुए यह बतलाया है कि अनन्तर अतिक्रान्त समयमें अल्पतर स्पर्धकोंकी उदीरणा करके यदि इस समयमें बहुतर स्पर्धकोंकी उदीरणा करता है तो वह भुजाकार अनुभाग उदीरणा कही जायगी । यदि अनन्तर अतिक्रांत समयमें बहुतर स्पर्धकोंकी उदीरणा करके इस समय स्तोक स्पर्धकोंकी उदीरणा करता है तो उसे अल्पतर उदीरणा कहना चाहिये । अनन्तर अतिक्रांत समयमें जितने स्पर्धकोंकी उदीरणा की गयी है आगे भी यदि उतने उतने ही स्पर्वकोंकी उदीरणा करता है तो इसका नाम अवस्थित उदीरणा होगा । पूर्वमें अनुदीरक होकर आगे उदीरणा करनेपर यह अवक्तव्य उदीरणा कही जायगी। इस प्रकारसे अर्थपदका कथन करते हुए यहां यह संकेत किया है कि पूर्वोक्त भुजाकारादि उदीरणाओंके स्वामित्वकी प्ररूपणा इसी अर्थपदके अनुसार करना चाहिये। ___ तत्पश्चात् यहाँ इन्ही उदीरणाओंसे सम्बन्धित एक जीवकी अपेक्षा काल व अन्तर, नाना जीवोंको अपेक्षा भंगविचय, काल व अन्तर; तथा अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । पश्चात् पदनिक्षेपकी प्ररूपणा करते हुए उसमें उत्कृष्ट एवं जघन्य भेदोंकी अपेक्षा स्वामित्व और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है। वृद्धि उदीरणामें समुत्कीर्तनका कथन करके तत्पश्चात् यह संकेत किया है कि अल्पबहुत्व पर्यंत स्वामित्व आदि अधिकारोंकी प्ररूपणा जिस प्रकार अनुभागवद्धिबन्ध में की गयी है उसी प्रकारसे उनकी प्ररूपणा यहाँ भी करना चाहिये। प्रदेशउदी रणा- मूलप्रकृतिप्रदेश उदीरणा और उत्तरप्रकृतिप्रदेशउदीरणाके भेदसे प्रदेशउदीरणा दो प्रकारकी है। इनमें मूलप्रकृतिप्रदेशउदीरणाकी विशेष प्ररूपणा यहाँ न कर केवल इतना मात्र संकेत किया गया है कि मलप्रकतिप्रदेश उदीरणाकी समत्कीर्तना आदि चौबीस अनयोगद्वारोंके द्वारा अन्वेषण करके भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिकी प्ररूपणा कर चुकनेपर मूल प्रकृतिप्रदेशउदीरणा समाप्त होती है। ऐसा ही निर्देश कषायप्राभृतमें चूणिसूत्रके कर्ता द्वारा भी किया गया है ( देखिये क. पा. सूत्र पृ. ५१९)। उत्तरप्रकृतिप्रदेशउदीरणाकी प्ररूपणा में स्वामित्वका विवेचन करते हुए पहिले मतिज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशउदीरणाके स्वामियोंका और तत्पश्चात् उन्हींकी जघन्य प्रदेशउदीरणाके स्वामियोंका कथन किया गया है। इसके बाद एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर इन अनुयोगद्वारोंका कथन स्वामित्वसे सिद्ध करके करना चाहिये; इतना उल्लेख मात्र करके स्वस्थान और परस्थान संनिकर्षकी संक्षेप में प्ररूपणा की गयी है। प्रदेशभुजाकार उदीरणाकी प्ररूपणामें पहिले प्रदेशभुजाकारउदीरणा, प्रदेशअल्पतरउदीरणा, प्रदेशअवस्थितउदीरणा और प्रदेशअवक्तव्य उदीरणा इन चारोंके स्वरूपका निर्देश किया गया है। तत्पश्चात् स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवकी अपेक्षा भंगविचय, नाना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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