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________________ १९८) छक्खंडागमे संतकम्म चदुण्णमाणुपुन्वीणामाणं जहण्णाणुभाग० अजहण्णाणुभागउदी० च केवचिरं०? जहण्णेण एगसमओ, उक्क० बेसमया । णवरि तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीणामाए तिण्णिसमया। केसि पि आइरियाणं अहिप्पाएण सव्वासिमाणुपुन्वीणमुक्कस्सकालो तिण्णिसमया, तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए चत्तारिसमया । अगुरुअलहुअ-थिर-सुभणिमिणणामाणं तेजा-कम्मइयभंगो। अथिर-असुह-उवधाद-परबाद-पत्तेय-साहारणसरीर-आदावुज्जोवणामाणं जहण्णाणुभागुदी० जहण्गुक्क० एगसमओ । अजहण्णाणुभागुदी० अथिर-असुहाणं अणादिया अपज्जवसिदा अणादिया सपज्जवसिदा । उवघादणामाए जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अंगुलस्स असंखे०भागो। परघादणामाए जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि, पत्तेयसाहारणसरीराणं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। आदावणामाए जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० बावीसवाससहस्साणि देसूणाणि । उज्जोवणामाए जह० एगसमओ, उक्क० तिपलिदोवमाणि देसूणाणि । जादिपंचय-उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहम-पज्जत्तापज्जतसुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चा-णीचागोदाणं जहण्णाणुभागुदीरणा जह० एगसमओ, उक्क०चत्तारिसमया। अजहण्णाणुभागुदी० चार आनुपूर्वी नामकर्मोकी जघन्य अनुभागउदीरणा और अजघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल होती है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय होती है। विशेष इतना है कि तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी उदीरणाका काल उत्कर्षसे तीन समय मात्र है। किन्हीं आचार्योंके अभिप्रायसे सब आनुपूर्वियोंका उत्कृष्ट काल तीन समय और तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका चार समय है। अगुरुलघु, स्थिर, शुभ और निर्माण नामकर्मकी इन उदीरणाओंके कालकी प्ररूपणा तैजस व कार्मण शरीरके समान है।। - अस्थिर, अशुभ, उपघात, परघात, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, आतप और उद्योत नामकर्मोंकी जघन्य अनुभागउदीरणा जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होती है। अजघन्य अनुभागउदीरणा अस्थिर और अशुभकी अनादि-अपर्यवसित व अनादि-सपर्यवसित, तथा उपघात नामकर्मकी जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त व उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग, परघात नामकर्मकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे कुछ कम तेतीस सागरोपम, प्रत्येक व साधारण शरीरकी जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त व उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग, आतप नामकर्मकी जघन्यसे अन्तमुहूर्त व उत्कर्षसे कुछ कम बाईस हजार वर्ष, तथा उद्योत नामकर्मकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे कुछ कम तीन पल्योपम काल तक होती है। ___ पांच जातियां, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, ऊंचगोत्र और नीचगोत्र; इनकी जघन्य अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय तक ताप्रती 'जादिपंचयस्स' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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