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उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा जह० उस्सास-पसत्थविहायगइ-सुस्सर-दुस्सराणं एगसमओ, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । तसणामाए जहण्णण एगसमओ, उक्क० बेसागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि । थावर-एइंदियणामाणं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। चदुण्णं जादीणं जह० एगसमओ, उक्क० सगढ़िदी । बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्ताणं जह० एगसमओ; उक्क० बादरणामाए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, सुहुमणामाए असंखेज्जा लोगा, पज्जत्तणामाए बेसागरोवमसहस्साणि, अपज्जत्तणामाए अंतोमुहुत्तं । जसगित्ति-सुभग-आदेज्जाणं जह० एगसमओ, उक्क० सागरोवमसहपुधत्तं। अजसगित्ति-दुभग-अणादेज्जाणं जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। उच्चागोदस्स जह० एगसमओ, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । णीचागोदस्स जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। तित्थयरणामाए जहण्णाणुभागुदी० केवचिरं० ? जह० वासपुधत्तं, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा देसूणचउरासीदिलक्खमेत्तपुव्वाणि वा। अजहण्ण० जहण्णुक्क०* अंतोमुत्तं । एवमेयजीवेण कालो समत्तो। एयजीवेण अंतरं । तं जहा- पंचणाणावरणीय-अट्ठदसणावरणीय-असादावेदणीय
होती है। अजघन्य अनुभागउदीरणा उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति और सुस्वरकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे कुछ कम तेतीस सागरोपम काल तक होती है। त्रस नामकर्मकी अजघन्य अनुभागउदीरणा जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे साधिक दो हजार सागरोपम काल तक होती है। उक्त अजघन्य उदीरणा स्थावर और एकेन्द्रिय नामकर्मकी जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र काल तक होती है। चार जाति नामकर्मकी वह उदीरणा जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे अपनी स्थिति प्रमाण होती है । बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त व अपर्याप्तकी जघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय होती है। उत्कर्षसे वह बादर नामकर्मकी अंगलके असंख्यातवें भाग, सूक्ष्म नामकर्मकी असंख्यात लोक, पर्याप्त नामकर्मकी दो हजार सागरोपम, तथा अपर्याप्त नामकर्मकी अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है। यशकं ति, सुभग और आदेयकी अजघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक होती है । अयशकीर्ति, दुर्भग और अनादेयकी अजघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक काल तक होती है। ऊंच गोत्रकी अजघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे सागरोपमशत पृथक्त्व काल तक होती है। नीचगोत्रकी अजघन्य उदीरणा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात लोक मात्र काल तक होती है। तीर्थंकर नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा कितने काल तक होती है ? वह जघन्यसे वर्षपृथक्त्व तथा उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि काल अथवा कुछ कम चौरासी लाख मात्र पूर्व तक होती है। उसकी अजघन्य अनुभागउदीरणा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है । इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ।
एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरण, आठ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नारकायु,
0 अप्रती 'अणुकक०' इति पाठः।
8 अप्रतौ 'अंतरं जहा' इति पाठः ।
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