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________________ २८८ ) छक्खंडागमे संतकम्म अपज्जत्तया। साहारणसरीरस्स को वेदओ? आहारओ। जसकित्ति -सुभग-आदेज्जाणं को वेदओ ? सजोगो अजोगो वा। अजसकित्ति-भग अणादेज्जाणं को वेदओ ? अगुणपडिवण्णो अण्णदरो तप्पाओग्गो। तित्थयरणामाए को वेदओ ? सजोगो अजोगो वा। उच्चागोदस्स तित्थयरभंगो। णीचागोदस्स अणादेज्जभंगो। सुस्सरदुस्सराणं को वेदओ ? भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदो जाव भासाणिरोहस्स अकारओ त्ति । एवं सामित्तं समत्तं ।। एगजीवेण कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो त्ति एदाणि अणुयोगद्दाराणि सामित्तादो साहेदूण वत्तव्वाणि । एत्तो अप्पाबहुअं पि जहा पयडिउदीरणाए कदं तहा कायव्वं । णवरि णाणत्तं-मणुसगइणामाए मणुस्साउअस्स च तुल्ला वेदया। एवं सेसाणं पि गदि-आउआणं च । पवाइज्जतेण उवएसेण हस्सरदिवेदएहितो सादवेदया जीवा विसेसा० । केत्तियमेत्तेण? संखेज्जजीवमेत्तेण । अण्णेण उवएसेण सादवेदएहितो हस्स-रदिवेदया विसेसा० असंखे० भागमेत्तेण । जुत्तीए च विसेसाहियत्तं णव्वदे। तं जहा--सव्वो आउअघादओ णियमा जेण असादवेदओ हस्स-रदीसु भज्जो तेण सादवेदएहितो हस्स-रदिवेदया असंखेज्जा* भागा जीव होते हैं। साधारणशरीरका वेदक कौन होता है ? उसका वेदक आहारक जीव होता है । यशकीति, सुभग और आदेयका वेदक कौन होता है ? इनका वेदक योग सहित और उससे रहित भी जीव होता है। अयशकीति, दुर्भग और अनादेयका वेदक कौन होता है ? उनका वेदक गुणप्रतिपन्नसे भिन्न तत्प्रायोग्य अन्यतर जीव होता है। तीर्थकर नामकर्मका वेदक कौन होता है ? उसका वेदक सयोग व अयोग जीव होता है। उच्चगोत्रके उदयका कथन तीर्थंकर प्रकृतिके समान है। नीचगोत्रके उदयका कथन अनादेयके समान है। सुस्वर और दुस्वरका वेदक कौन होता है ? उनका वेदक भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ जीव जब तक भाषाके निरोधको नहीं करता तब तक होता है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिवर्ष; इन अनुयोगद्वारोंका कथन स्वामित्वसे सिद्ध करके करना चाहिये । अल्पबहुत्व भी जैसे प्रकृतिउदीरणामें किया गया है वैसे ही उसे यहां भी करना चाहिये । परंतु यहां इतनी विशेषता है- मनुष्यगति नामकर्म और मनुष्यायुके वेदकोंकी संख्या समान है। इसी प्रकार शेष भी गतिनामकर्मों और आयु कर्मोके सम्बन्धमें कहना चाहिये । परस्पराप्राप्त उपदेशके अनुसार हास्य और रतिके वेदकोंसे सातावेदनीयके वेदक जीव विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे वे विशेष अधिक हैं ? संख्यात जीव मात्रसे विशेष अधिक हैं। अन्य उपदेशके अनुसार सातावेदनीयके वेदकोंकी अपेक्षा हास्य व रतिके वेदक असंख्यातवें भाग मात्रसे विशेष अधिक हैं। इनकी विशेषाधिकता युक्तिसे भी जानी जाती है। यथा- आयुके घातक सब जीव नियमसे असाता वेदक होकर भी चूंकि हास्य व रतिके वेदनमें भजनीय हैं इसीलिए सातावेदकोंकी + प्रतिष — अजसकित्ति- ' इति पारः। * काप्रती ' असंखेज्जदि' इति पाठः । अ-काप्रत्योः ‘अणेण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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