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________________ ( ९७ उवक्कमाणुयोगद्दारे भुजगारुदीरणा ढाणाणमेयजीवेण अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरमप्पाबहुअंच जाणिदूण वत्तव्वं । गोदस्स पत्थि ट्ठाणउदीरणा । अंतराइयस्स एक्कं चेव द्वाणं । एवं ट्ठाणपरूवणा समत्ता । एत्तो भुजगारुदीरणा वुच्चदे । तं जहा- दंसणावरणीयस्स अत्थि भुजगारअप्पदर-अवट्ठिदउदीरणाओ, अवत्तव्वउदीरणा णत्थि । एवं परूवणा समत्ता। एत्थ सामित्तं-भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदाणं को उदीरगो? अण्णदरो मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी वा। एवं सामित्तं समत्तं । कालो- भुजगार-अप्पदराणं जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अवट्ठिदस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं कालो समत्तो। ___ अंतरं- एयजीवेण भुजगार-अप्पदराणमंतरं जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । अवट्टिदउदीरणंतरं जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । एवमंतरं समत्तं । णाणाजीवेहि भंगविचओ वुच्चदे । तं जहा- भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदउदीरया णियमा अत्थि । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। कालो- भुजगार-अप्पदर-अवट्ठिदाणं सव्वद्धा । एवं कालो समत्तो। अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और अल्पबहुत्वको जानकर प्ररूपणा करना चाहिये । गोत्र कर्मकी स्थानउदीरणा सम्भव नहीं है । अन्तराय कर्मका एक ही स्थान है। इस प्रकार स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। यहां भुजाकार उदीरणाका कथन करते हैं । यथा- दर्शनावरणीय कर्मकी भुजाकार अल्पतर और अवस्थित उदीरणायें है; अवक्तव्य उदीरणा नहीं है। इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई। यहां स्वामित्व-भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणाओंका उदीरक कौन है ? अन्यतर मिथ्यादष्टि और सम्यग्दष्टि जीव उनका उदीरक है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। काल-भुजाकार और अल्पतर उदीरणाओंका काल जघन्य और उत्कर्षसे एक समय मात्र है। अवस्थित उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। अन्तर-एक जीवकी अपेक्षा भुजाकार और अल्पतर उदीरणाओंका अन्तर जघन्यसे व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है । अवस्थित उदीरणाका अन्तर जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयकी प्ररूपणा की जाती है। यथा-भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरक नियमसे हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। काल- भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित उदीरणाओंका काल सर्वदा है । इस प्रकार काल समाप्त हुआ। .ताप्रती ' भुजगारअप्पदराणमंतरं जहणुक्कस्सेण एगसमओ' इति पारः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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