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________________ ९६ ) छक्खंडागमे संतकम्मं वण्ण-गंध-रस-फास- अगुरुअलहुअ - उवघाद - परघाद- उस्सास-पसत्यविहायगइ-तस - बादरपज्जत्त - पत्तेयसरीर-थिराथिर - सुहासुह-सुभग-सुस्सर आदेज्ज- जसकित्तिणिमिण- तित्थयरं चेदि एदाओ एक्कत्तीसपयडीओ तित्थयरो उदीरेदि । एदस्स कालो जहणेण वासपुधत्तं, उक्कस्सेण गब्भादिअट्टवस्सेहि ऊणा पुव्वकोडी । सेसाणं द्वाणाणं कालो + for araat | देवगदीए एक्कवीस-पंचवीस- सत्तावीस (अट्ठावीस - एगुणतीस उदीरणट्ठाणाणि होंति । तत्थ एक्कवीसाए पयडिपरूवणं कस्सामो । तं जहा- देवगड पंचिदियजादितेजा - कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस- फास - देवगइपाओग्गाणुपुब्बी - अगुरुअलहुअ-तसबादर- पज्जत्त-थिराथिर - सुहासुह-सुभग-आदेज्ज - जसगित्ति- णिमिणं चेदि । एदस्स ठाणस्स कालो जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया । सरीरे गहिदे आणुपुव्वीमवणेण वेडव्वियसरीर-समचउरससंठाण वे उव्वियसरीरंगोवंग-उवघाद-पत्तेयसरीरेसु पक्खित्तेसु पणुवीसाए ट्ठाणं होदि । सरीरपज्जतीए पज्जत्तयदस्स परघाद-पसत्थविहायगदी पक्खित्तासु सत्तावीसाए ट्ठाणं होदि । आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्रायदस्स उसासे पविट्ठे अट्ठावीसाए ट्ठाणं होदि । भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स सुस्सरे पविट्ठे एगुणतोसाए ट्ठाणं होदि । एदस्स ट्ठाणस्स कालो जहण्णेण अंतोमुहूतूणदसवस्ससहस्साणि, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तूणतेत्तीसं सागरोवमाणि । एसि संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर; इन इकतीस प्रकृतियोंकी उदीरणा तीर्थंकर करते हैं । इसका काल जघन्यसे वर्षपृथक्त्व और उत्कर्षतः गर्भसे लेकर आठ वर्षोंसे हीन एक पूर्वकोटि प्रमाण है । शेष स्थानोंके कालका कथन जानकर करना चाहिये । देवगति में इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस; ये पांच उदीरणास्थान होते हैं । उनमें इक्कीस प्रकृति रूप स्थानकी प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीर्ति और निर्माण । इस स्थानका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय मात्र है। शरीरके ग्रहण कर लेनेपर आनुपूर्वीको कम करके वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, उपघात और प्रत्येकशरीर; इन पांच प्रकृतियोंको मिलानेपर पच्चीस प्रकृति रूप स्थान होता है। शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर परघात और प्रशस्त विहायोगति, इन दो प्रकृतियोंको उपर्युक्त प्रकृतियोंमें मिला देने से सत्ताईस प्रकृति रूप स्थान होता है । आनप्राणपर्याप्ति से पर्याप्त होनेपर उच्छ्वास प्रकृतिके प्रविष्ट होनेसे अट्ठाईस प्रकृति रूप स्थान होता है । भाषापर्याप्ति से पर्याप्त होनेपर सुस्वरके प्रविष्ट होने से उनतीस प्रकृतिरूप स्थान होता है । इस स्थानका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम प्रमाण है । इन स्थानों का एक जीवकी अपेक्षा काप्रतौ ' सेसाणं कालो' इति पाठः । Jain Education International काप्रतौ ' सत्ताविस इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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