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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे णामकम्मोदीरणट्टाणपरूवणा एक्कत्तीसं चेदि अट्ठ उदीरणट्ठाणाणि। तं जहा- मणुसगइ-पंचिदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-तस-बादर-पज्जत्त-थिराथिर-सुभासुभसुभग-आदेज्ज-जसगित्ति-णिमिणं चेदि एदासि वीसण्णं पयडीणमेगं चेव ढाणं । तं कस्स? पदर-लोगवूरणगदसजोगिकेवलिस्स । जदि तित्थयरो तो तित्थयरेण सह एक्कवीसाए ट्ठाणं होदि। कवाडं गदस्स ओरालियसरीरं समचउरससंठाणं, तित्थयरुदयरहियाणं छण्णं संठाणाणमेक्कदरं, ओरालियसरीरंगोवंगं वज्जरिसहसंघडणं उवघादं पत्तेयसरीरं च वीसाए एक्कवीसाए वा पक्खित्ते छव्वीसाए सत्तवीसाए वाटाणं होदि। दंडं गदस्स परघादं पसत्थापसत्थविहायगदीणमेक्कदरं च घेत्तूण छव्वीसाए सत्तवीसाए च पक्खित्ते अट्ठवीसाए एगुणतीसाए वा द्वाणं होदि । णवरि तित्थयराणं पसत्थविहायगदी एक्का चेव उदेदि। आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासे पक्खि ते एगुणतीसाए तीसाए च ट्ठाणं होदि। भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्त सुस्सर-दुस्सरेसु एक्कदरे पविढे तीसाए एक्कतीसाए वा हाणं होदि । णवरि तित्थयराणं दुस्सर-अप्पसत्थविहायगदीणमुदओ णस्थि । संपहि एक्कत्तीसंपयडीणं णामणिद्देसो कीरदे। तं जहा- मणुसगइ-पंचिदयजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण--ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण इकतीस, ये आठ उदीरणास्थान होते हैं। यथा- मनुष्यगति, पंवेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सभग, आदेय, यशकीर्ति और निर्माण : इन बीस प्रकृतियोंका एक स्थान होता है। वह किसके ह प्रतर व लोकपुरण समदघातगत सयोगकेवलीके होता है। वह यदि तीर्थकर होता है तो तीर्थंकर प्रकृतिके साथ इक्कीस प्रकृति रूप स्थान होता है। कपाटसमदघातक केवलीके औदारिकशरीर, ( यदि वह तीर्थकर है तो) समचतुरस्रसंस्थान, तीर्थंकर प्रकृतिके उदयसे रहित केवलियोंके छह संस्थानोंमेंसे कोई एक, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, उपघात और प्रत्येकशरीर; इन छह प्रकृतियोंको बीस अथवा इक्कीस प्रकृति रूप स्थानमें मिला देनेपर छब्बीस अथवा सत्ताईस प्रकृति रूप स्थान होता है। दण्डसमुद्घातको प्राप्त केवलीकी अपेक्षा परघात और प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगतिमेंसे किसी एकको ग्रहण कर छब्बीस अयवा सत्ताईस प्रकृति रूप स्थानोंमें मिला देनेसे अट्ठाईस अथवा उनतीस प्रकृति रूप स्थान होते हैं। विशेष इतना है कि तीर्थंकरोंके एक प्रशस्त विहायोगतिका ही उदय होता है । आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर उक्त दो स्थानोंमें एक उच्छ्वास प्रकृतिको मिला देनेसे क्रमश: उनतीस और तीस प्रकृति रूप स्थान होते हैं । भाषापर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर उक्त प्रकृतियोंमें सुस्वर व दुस्वरमेंसे किसी एकके प्रविष्ट होनेपर तीस अथवा इकतीस प्रकृति रूप स्थान होता है । विशेष इतना है कि तीर्थंकरोंके दुस्वर और अप्रशस्तविहायोगतिका उदय नहीं होता। अब इकतीस प्रकृतियोंके नामोंका निर्देश किया जाता है । यथा- मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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