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________________ (४७ उवक्कमाणुयोगद्दारे उदीरयाणमप्पाबहुअं सिया उदीरया च अणुदीरया च । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। णाणाजीवेहि कालो- सव्वेसि कम्माणं उदीरणा केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा । एवं कालो समत्तो। अंतरं णत्थि । अप्पाबहुअं पयदं । आउअस्स उदीरया थोवा। वेयणीयस्स उदीरया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? चरिमावलियाए संचिदअणंतजीवमेत्तेण । मोहणीयस्स उदीरया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? अप्पमत्त-अपुव्व-अणियट्टिसुहमसांपराइयजीवमेतण। णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणमुदीरया विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण ? उवसंत-खीणकसायमेत्तेण । णामा-गोदाणमुदीरया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? सजोगिकेवलिमत्तेण। णिरयगईए रइएसु सम्वेसि पि कम्माणमुदीरया तुल्ला, णिरंतरं तत्थ मरंताणमभावादो । कदाचि आउअस्स उदीरया थोवा, सेसकमाणं सरिसा विसेसाहिया । केत्तियमेतेण? चरिमावलियाए संचिदजीवमेतेण । एवं सव्वासिं गदीणं वत्तव्वं । णवरि तिरिक्खेसु सरिसा त्ति ण वत्तव्वं । मणुस्सेसु ओघं । एवमप्पाबहुअं समत्तं । कदाचित् बहुत उदीरक व एक अनुदीरक, तथा कदाचित् बहुत उदीरक व बहुत अनुदीरक होते हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। ___ नाना जीवोंकी अपेक्षा काल- सब कर्मोंकी उदीरणा कितने काल तक होती है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा होती है । इस प्रकार काल समाप्त हुआ। ___ नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व प्रकृत है- आयु कर्मके उदीरक स्तोक हैं । वेदनीयके उदीरक विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं? अन्तिम आवलीमें संचित अनन्त जीवोंके प्रमाणसे अधिक हैं। मोहनीय कर्मके उदीरक विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंके प्रमाणसे विशेष अधिक हैं । ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तरायके उदीरक विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय जीवोंके प्रमाणसे अधिक हैं। नाम व गोत्रके उदीरक विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? सयोगकेवलियोंके प्रमाणसे अधिक हैं। नरकगतिमें नारकियोंमें सभी कर्मोके उदीरक तुल्य हैं, क्योंकि वहां निरन्तर मरनेवाले जीवोंका अभाव है । कदाचित् वहां आयु कर्मके उदीरक स्तोक हैं और शेष कर्मोंके उदीरक समान होकर आयु कर्मके उदीरकोंकी अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं ? कितने मात्रसे विशेष अधिक होते हैं ? अन्तिम आवलीके संचित जीवोंके प्रमाणसे वे विशेष अधिक होते हैं । — सदृश होते हैं ' ऐसा नहीं कहना चाहिये । मनुष्योंकी प्ररूपणा ओघके समान है । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । ४ काप्रती चरिमावलिये', ताप्रती 'चरिमावलिय' इति पाठः । Jain Education international For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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