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________________ उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा (१४७ णामकम्मपयडीणं च सण्णियासो कायव्वो। जहण्णपदसण्णियासो वि चितिय वत्तव्यो। एवं सण्णियासो समत्तो। अप्पाबहुअं उच्चदे- सव्वत्थोवा तित्थयरुक्कस्सटिदिउदीरणा । मणुस-तिरक्खाउआणं उक्कस्सटिदिउदीरणा असंखेज्जगुणा। देव-णिरयाउआणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा । आहारसरीरस्स उक्कस्सट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा । जहण्णद्विदिउदीरणा* विसेसाहिया । देवगदीए उक्कस्सटिदिउदीरणा संखेज्जगुणा । जहण्णढिदिउदीरणा विसेसाहिया। मणुसगदि-उच्चागोद-जसगित्तीणं उक्कस्सद्विदिउदीरणा विसेसाहिया । एदासि चेव पयडीणं जहण्णट्रिदिउदीरणा* विसेसाहिया। णिरयगइ---तिरिक्खगइ--चदुसरीर---अजसगित्तिणीचागोदाणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणा सरिसा , जहण्ण द्विदिउदीरणा विसेसाहिया । सादस्स उक्कस्सिया द्विदिउदीरणा विसेसाहिया । सादस्स जहण्णट्टिदिउदीरणा विसेसाहिया । पंचणाणावरणीयणवदंसणावरणीय--असादावेदणीय-पंचंतराइयाणं उक्कस्सदिदिउदीरणा सरिसा । एदासिं चेव जहण्णटिदिउदीरणा विसेसाहिया। णवण्णं णोकसायाणमुक्कस्सट्ठिदिउदीरणा विसेसाहिया । एदेसि चेव कम्माणं जहण्णट्टिदिउदीरणा विसेसाहिया । सोलसण्हं कसायाणं उक्कस्सद्विदिउदीरणा सरिसा ति। एदेसि कम्माणं व रति तथा परिवर्तमान शुभ नामकर्मकी प्रकृतियोंकी मुख्यतासे भी संनिकर्षकी प्ररूपणा कहना चाहिये । जघन्य पदविषयक संनिकर्षकी भी विचारकर प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार संनिकर्ष समाप्त हुआ। . अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है- तीर्थंकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा सबसे स्तोक है। मनुष्यायु और तिर्यंचआयुकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा असंख्यातगुणी है। देवायु और नारकायुकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा संख्यातगुणी है। आहारकशरीरकी उत्कृष्ट-स्थिति-उदीरणा संख्यातगणी है। उससे उसीकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा संख्यातगुणी है। उससे उसीकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। मनुष्यगति, उच्चगोत्र और यशकीर्तिकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। इन्हीं प्रकृतियोंकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नरकगति, तिर्यंचगति, आहारकको छोडकर शेष चार शरीर, अयशकीर्ति और नीचगोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा सदृश है। इनकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । सातावेदनीयकी ज-स्थिति उदीरणा विशेष अधिक है। पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पांच अन्तराय ; इनकी उकृष्ट स्थिति-उदीरणा सदृश है। इन्हींकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है। इन्ही कर्मोंकी ज-स्थिति-उदीरणा विशेष अधिक है । सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा सदृश है । इन कर्मोंकी ज-स्थिति-उदीरणा । प्रत्योरुभयोरेव ' जहण्णट्ठिदिउदीरणा' इति पाठः। * काप्रतौ 'ज० दिदि-', ताप्रतौ ' जहण्णट्रिदि' इति पाठः। *ताप्रती 'जह० ट्रिदिउदीरणा' इति पाठः । अग्रेत्वत्र काप्रती प्रायशः 'ज. ट्रिदि' तथा ताप्रतौ 'जह० ट्रिदि० ' इत्येवंविध: पाठ उपलभ्यते।४ काप्रती 'सरिसा होति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Persoal Use Only 'www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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