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पक्कमाणुयोगद्दारे संतकज्जवादणिरासो
( १९ संते कज्ज-कारणभावाणुववत्तीदो। किं च-- विप्पडिसेहादो ण संतस्स उप्पत्ती। जदि अत्थि, कधं तस्सुप्पत्ती? अह उप्पज्जइ, कधं तस्स अत्थित्तमिदि ।
कि च- णिच्चपक्खे ण कारणं कज्जं वा अत्थि, णिव्विगप्पभावेण पागभावपद्धसाभावविरहिए तदणुववत्तीदो। आविब्भावो उप्पादो, तिरोभावो विणासो त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, णिच्चस्स अत्थस्स दोण्णं मज्झे एगम्हि चेव भावे अवट्टियस्स अणाहेआदिसयत्तेण अवत्थंतरसंकंतिवज्जियस्स दुब्भावविरोहादो। वुत्तं च--
नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलं 0 ।। २ ।।
कार्यके सर्वथा सत् होनेपर कार्य-कारणभाव ही घटित नहीं होता। इसके अतिरिक्त असंगत होनेसे सत् कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है; क्योंकि, यदि कार्य कारणव्यापारके पूर्व में भी विद्यमान है तो फिर उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? और यदि वह कारणव्यापारसे उत्पन्न होता है तो फिर उसका पूर्वमें विद्यमान रहना कैसे संगत कहा जावेगा ?
और भी- नित्य पक्षमें कारण और कार्यका अस्तित्व ही सम्भव नहीं है, क्योंकि, उस अवस्थामें निर्विकल्प होनेके कारण प्रागभाव और प्रध्वंसाभावसे रहित अर्थमें कार्य-कारणभाव बन नहीं सकता। यदि कहा जाय कि आविर्भावका नाम उत्पाद और तिरोभावका नाम विनाश है, तो यह भी कहना योग्य नहीं है; क्योंकि, इन दोनोंमें से किसी एक ही अवस्था में रहनेवाले नित्य पदार्थका अनाधेयातिशय ( विशेषता रहित ) होनेसे चूंकि अवस्थान्तरमें संक्रमण सम्भव नहीं है, अतएव उसमें आविर्भाव एवं तिरोभाव रूप दो अवस्थाओंके रहनेका विरोध है, अर्थात् कूटस्थ नित्य होनेसे यदि वह तिरोभूत है तो तिरोभूत ही सदा रहेगा, और यदि आविर्भूत है तो सदा आविर्भूत ही रहेगा। कहा भी है--
नित्य एकान्त पक्षमें भी पूर्व अवस्था ( मृत्पिण्डादि ) के परित्यागरूप और उत्तर अवस्था ( घटादि ) के ग्रहण रूप विक्रिया घटित नहीं होती, अत: कार्योत्पत्तिके पूर्व में ही कर्ता आदि कारकोंका अभाव रहेगा। और जब कारक ही न रहेंगे तब भला फिर प्रमाण ( प्रमृति क्रियाका अतिशय साधक ) और उसके फल ( अज्ञाननिवृत्ति ) की सम्भावना कैसे की जा सकती है ? अर्थात् उनका भी अभाव रहेगा ॥२॥
विशेषार्थ-- सांख्य मतमें चेतन पुरुषको कूटस्थ नित्य स्वीकार किया गया है। इस मतका निराकरण करनेके लिये उक्त कारिकाका अवतार हुआ है । उसका अभिप्राय यह है कि पुरुषको सर्वथा नित्य माना जाता है तो वह विकार रहित होनेसे चेतना रूप क्रियाका कर्ता भी नहीं हो सकता, क्योंकि, उस अवस्थामें कारक (कुम्भकारादि ) अथवा ज्ञापक ( प्रमाता ) हेतुओंका व्यापार असम्भव है। अथवा यदि कारक व ज्ञापक हेतुओंका व्यापार स्वीकार किया जाता है तो फिर पूर्व स्वभाव ( अकारक अथवा अप्रमाता ) का परित्याग करके उत्तर स्वभाव (उत्पत्ति अथवा क्रियाका कर्तृत्व ) को ग्रहण करनेके कारण उसकी कूटस्थताका विघात होता है । अतएव कूटस्थ नित्यताका पक्ष बनता नहीं है।
___Jain Educationase आमी . ३७.
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