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________________ २० ) छक्खडागमे संतकम्म यदि सत्सर्वथा कार्य पुंवन्नोत्पत्तुमर्हति । परिणामप्रक्लप्तिश्च नित्यत्वैकान्तबाधिनी ॥ ३ ॥ पुण्यपापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावः फलं* कुतः ।। बन्धमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ॥ ४ ॥ सदकरणात, उपादानग्रहणात्, सर्वसम्भावाभावात्, शक्तस्य शक्यकरणात्, कारणभावाच्च असंतं चेव कज्जमुप्पज्जदि त्ति के वि भणंति। तण्ण जुज्जदे, विसेससरूवेणेव सामण्णसरूवेण वि असंते बुद्धिविसयमइक्कते वयणगोयरमुल्लंघिय द्विदकारणकलाववावारविरोहादो। अविरोहे वा, मट्टियपिंडादो घडो व्व गद्दहसिंगं पि उप्पज्जेज्ज, असंतं पडि यदि कार्य सर्वथा सत् है तो वह पुरुषके समान उत्पन्न नहीं हो सकता। और परिणामकी कल्पना नित्यत्वरूप एकान्त पक्षकी विघातक है ।। ३ ।। विशेषार्थ-- अभिप्राय यह है कि यदि कार्यको सर्वथा सत् ही स्वीकार किया जाता है तो जैसे सांख्य मतमें पुरुषकी उत्पत्ति नहीं मानी गई है वैसे ही पुरुषके समान सर्वथा सत् होनेसे प्रकृतिसे महान् व अहंकारादिकी भी अनुत्पत्तिका अनिवार्य प्रसंग आता है, जो उन्हें अभीष्ट नहीं है। इस प्रसंगको टालने के लिये यदि कहा जाय कि यथार्थमें न कोई कार्य उत्पन्न होता है और न नष्ट ही होता है। किन्तु जिस प्रकार कछवा अपने विद्यमान अंगोंको कभी बाहिर निकालता है और कभी भीतर छुपा लेता है, इसी प्रकार पूर्व में विद्यमान महान् व अहंकारादिका प्रधानसे आविर्भाव मात्र होता है। इस प्रकारके आविर्भाव व तिरोभावरूप परिणामको छोडकर कार्य-कारणभाव वास्तव में है ही नहीं। सो इस कथनको असंगत बतलाते हुए उत्तरमें यहां कहा गया है कि पूर्वस्वभाव ( तिरोभूत अवस्था ) के नाश और उत्तरस्वभाव ( आविर्भूत अवस्था ) के उत्पन्न होने का नाम ही तो परिणाम है। फिर भला ऐसे परिणामकी कल्पना करने पर नित्यत्वरूप एकान्त पक्ष में कैसे बाधा न उपस्थित होगी? अवश्य होगी। इसके अतिरिक्त सर्वथा नित्यत्वकी प्रतिज्ञामें मन, वचन व कायकी शुभ प्रवृत्तिरूप पुण्य क्रिया तथा उनकी अशुभ प्रवृत्तिरूप पाप क्रिया भी नहीं बन सकती। अत एव पुण्य व पापका अभाव होनेपर जन्मान्तरप्राप्तिरूप प्रत्यभाव तथा सुख व दुःखके अनभवनरूप पूण्य एवं पापका फल भी कहांसे होगा? नहीं हो सकेगा । इसलिये हे भगवन् ! जिन एकान्तवादियोंके आप नेता नहीं हैं उनके मतमें बन्ध व मोक्षकी व्यवस्था भी नहीं बन सकती ॥४॥ अब सत् कार्यके किये न जा सकनेसे उपादानोंका ग्रहण होने से, सबसे सबकी उत्पत्तिका अभाव होनेसे, शक्त कारण द्वारा शक्य कार्यके ही किये जानेसे तथा कारणभाव होनेसे असत् ही कार्य उत्पन्न होता है; ऐसा कणाद ( वैशेषिकदर्शनके कर्ता ) और गौतम ( न्यायदर्शनके कर्ता ) आदि कितने ही ऋषि कहते हैं वह भी योग्य नहीं है, क्योंकि, कार्य जैसे विशेष ( घटादि आकार ) स्वरूपसे असत् है वैसे ही यदि उसे सामान्य ( मृत्तिका आदि ) स्वरूपसे भी असत् स्वीकार किया जाय तो ऐसा कार्य न तो बुद्धिका ही विषय हो सकता है और न वचनका भी । अत एव बुद्धि व वचनके अविषयभूत ऐसे कार्यके लिये स्थित कारणकलापके व्यापार का विरोध आता है। और यदि विरोध न माना जाय तो फिर जैसे मिट्टीके पिण्डसे घट उत्पन्न होता है वैसे ही उससे गधेका सीग भी उत्पन्न हो जाना चाहिये, क्योकि, असत्त्वकी ४ आ मी ३९. Jain Education International * काप्रती 'प्रत्य मावफलं' इति पाटः। For Private & Personal Use Only आ मी ४०. www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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