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________________ ७४ ) ... छक्खंडागमे संतकम्म णाणाजीवेहि सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णओ उदीरणकालो थोवो, तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं' तस्सेव उक्कस्सओ उदीरणकालो असंखेज्जगुणो। सम्मामिच्छत्तस्स उदीरणाए जाणाजीवेहि उक्कस्सओ विरहकालो असंखेज्जगुणो। एवं णाणाजीवेहि कालो समत्तो। ___णाणाजीवेहि अंतरं वुच्चदे-- सम्मामिच्छत्तस्स अंतरं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। आहारसरीरस्स उदीरणंतरं जहष्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वस्साणि । आणुपुग्वितियस्स जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण चउवीसमुहुत्ता । सेसाणं कम्माणं णत्थि अंतरं । एवमंतरं समतं । सण्णियासो दुविहो- सत्थाणसण्णियासो परत्थाणसण्णियासो चेदि। सत्थाणसण्णियासे पयदं- मदिणाणावरणमुदीरेंतो सेसणाणावरणीयाणि णियमा उदीरेदि । एवं पुध पुध सेसपयडीणं वत्तव्वं । चक्खुदंसणावरणीयमुदीरेंतो अचक्खु-मोहिकेवलदंसणावरणीयाणं णियमा उदीरओ। सेसपंचण्णं पयडीणं सिया उदीरओ। एवमचक्खुदंसणावरणीय-ओहिटसणावरणीय-केवलदसणावरणीयाणं वत्तव्वं । णिहमुदीरेंतो हेट्ठिमाणं चदुण्ण पयडीणं णियमा उदीरओ, सेसाणमुवरिमाणं णियमा अणुदीरओ। एवं पयलाए णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणं पुध पुध वत्तव्वं । अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य उदीरणाकाल स्तोक है। उसीका द्रव्य असंख्यातगुणा है । उसीका उत्कृष्ट उदीरणाकाल असंख्यातगुणा है। नाना जीवोंकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणाका उत्कृष्ट विरहकाल असंख्यातगुणा है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा समाप्त हुई। नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका कथन किया जाता है- सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण है। आहारकशरीरकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात वर्ष प्रमाण है। तीन आनुपूर्वियोंकी उदीरणाका अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चौबीस मुहूर्त प्रमाण है। शेष कर्मोंकी उदी रणाका अन्तरकाल सम्भव नहीं है । इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। संनिकर्ष दो प्रकार है-- स्वस्थान संनिकर्ष और परस्थान संनिकर्ष । यहां स्वस्थान संनिकर्ष प्रकृत है-- मतिज्ञानावरणीयकी उदीरणा करनेवाला शेष ज्ञानावरणीयोंकी नियमसे उदी रणा करता है। इसी प्रकार पृथक् पृथक् शेष चार ज्ञानावरणीय प्रकृतियोंके आश्रयसे संनिकर्षका कथन करना चाहिये । चक्षुदर्शनावरणीयकी उदीरणा करनेवाला अचक्षदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणका नियमसे उदीरक होता है। शेष पांच दर्शनावरण प्रकृतियोंका कदाचित् उदीरक होता है। इसी प्रकारसे अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणके आश्रयसे संनिकर्षकी प्ररूपणा करना चाहिये । निदाकी उदीरणा करनेवाला पिछली चार प्रकृतियोंका नियमसे उदीरक और शेष आगेकी प्रकृतियोंका नियमसे अनुदीरक होता है। इसी प्रकार प्रचला, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि प्रकृतियोंका आश्रय करके अलग अलग संनिकर्षका कथन करना चाहिये। . प्रत्योरुभयोरेव 'दंसणावरणीयं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001814
Book TitleShatkhandagama Pustak 15
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages488
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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